बुधवार, 20 अगस्त 2008

पाठक दोस्तों से अपनी बात

मेरे बहुत से मित्रों को यह संकलन देखकर हैरत हो सकती है क्योंकि उन्होने मुझे बीत ढाई दशक से एक पत्रकार के रूप में ही देखा है। मैं कवि होने का दावा भी नहीं करता पर इलाहाबाद की गलियों में कभी कवि और लेखक होने का सपना जरूर देखा करता था। मुख्यधारा की पत्रकारिता में आने के बाद यह सपना कभी -कभार याद भी आता रहा। वह सपना भले ही सपना रहा हो मैं इस मामले में खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मैने सर्वश्री स्व.रघुपति सहाय फिराक ,महादेवी वर्मा , शैलेश मटियानी, इलाचंद जोशी,डा.जगदीश गुप्त, प्रो.विजयदेव नारायण शाही, डा.रामकुमार वर्मा,भैरव प्रसाद गुप्त और केशव प्रसाद मिश्र से लेकर सत्य प्रकाश मिश्रा जी जैसी कई नामी गिरामी हस्तियों को बहुत करीब से देखा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है और उनका स्नेह पात्र भी रहा हूं। महान कथाकार अमरकान्त जी तथा मार्कण्डेयजी से काफी कुछ सीखने समझने को अकसर मिलता रहा। एक पत्रकार के रूप में मै आज जहाँ कहीं हूं वह इन महान साहित्यकारों की स्नेहछाया के साथ मेरे अग्रज और अभिभावक श्री अनुग्रह नारायण सिंह और मेरे गुरू डा. रामनरेश त्रिपाठी के आशीष का परिणाम है। जहां तक कविताओ का सवाल है जो कुछ लिखा उसमें से काफी कुछ तो दीमको की ही भेंट चढ़ गया। इस नाते मैं इसे पढऩेवाले मिंत्रों और विद्वानो से यही निवेदन करना चाहूंगा कि वे इसे पढ़ते समय इस बात का जरूर ध्यान रखें कि ९५ फीसदी कवितायें स्नातक की पढ़ाई से पहले और नवीं कक्षा के दौर की हैं। अब ये कैसी हैं और किन मनोभावों के बीच लिखी गयी हैं इस पृष्ठभूमि से आसानी से समझा जा सकता है। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई में अपना बहुत कु छ गंवा देनेवाले बस्ती जिले के राजपूतों के क्रांतिकारी गांव गुंडा कुवर ( यह नाम भी अंग्रेजों ने तोहफे में दिया था) में 7 अप्रैल 1965 को जन्म लेने के बाद जो परिवेश मिला,वही मेरी असली बुनियाद है। करीब सालाना आयोजन बन चुकी घाघरा की बाढ़ ने तैरना सिखा दिया था। गांव को ठीक से समझ भी नहीं पाया था कि पिताजी के साथ इधर से उधर कई जिलों में भटक ता रहा। इन सड़को ने जो कुछ सिखाया शायद वह किताबों से काफी ज्यादा है। संयोग से बचपन से ही देश के कई हिस्से मेरे नन्हे पांव की परिधि में आए। समय के साथ विरासत मे मिले सामंती संस्कार जाने कब हवा में विलीन हो गए और कलम खुद चलने लगी। बहुत कुछ पीछे छूट गया लेकिन मेरी जननी श्रीमती प्रेम कुमारी सिंह हमेशा एक ताकत की तरह मेरे दिल के करीब रहीं और कठिन से कठिन समय में वह मुझे सहारा देती रहीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढा़ई के दौरान वहां के खुले साहित्यिक परिवेश में अपनी रचनाओं को बंद पन्नों से बाहर निकालने का साहस मैं जुटा सका। वहां के जानेमाने एडवोकेट श्री संकठा राय के घर बेली रोड पर स्थापित साह्त्यिक संस्था सोच की बैठको में मुझ जैसे तमाम युवा रचनाकारों के हिचको को तोड़ा। इस संस्था के अध्यक्ष श्री धनंजय सिंह बघेल थे और मैं महासचिव। मेरा काम अखबारों में साप्ताहिक संगोष्ठी की रिपोर्ट भी अखबारों तक पहुंचाना था। कुछ ही समय में काफी लंबी चौड़ी कवरेज़ इस संस्था को मिलने लगी थी। इस संगोष्ठी के लिए चूंकि सारा खर्च श्री राय करते थे इस नाते उनको इसका संरक्षक बनाया गया था। इस संस्था ने नगर की तमाम युवा और हतोत्साहित कविओं और लेखको को नयी ऊर्जा दी।सोच की साप्ताहिक संगोष्ठी में कोई न कोई नामी गिरामी लेखक कवि मौजूद रहता था। इस नाते इसे कवर करने पत्रकार भी आने लगे। हलाँकि आठवीं कक्षा से ही मै गुपचुप ढ़ंग से कुछ लिखने-पढऩे लगा था और कुछ कविताऐं -कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी थीं,पर इनको लेकर मेरे भीतर अजीबोगरीब संकोच था। यह सोच की संगोष्ठी में टूटा और कार्बन रख कर कविताओं को मैं स्व. हरिवंश राय बच्चन से लेकर बहुत से शीर्ष रचनाकारों तक भेजने ही नहीं लगा बल्कि तमाम मामलों में उनसे जिरह भी करने लगा। बच्चन जी को मेरी कई कविताऐं पसंद आयीं और उन्होने पत्र लिख कर मुझे प्रोत्साहन भी दिया। लेकिन एक संगोष्ठी में जानेमाने कथा कार मार्कंडेय जी ने मेरे कुछ जूनियर साथियों के सामने मुझे गजलें न लिखने की सख्त हिदायत दे दी । इस घटना से मैं आहत भी हुआ और नाराज भी। लेकिन यह नाराजगी गजलों की डायरी पर उतरी और मैने उसे आग के हवाले कर दी। एक डायरी मेरे एक मित्र नरेंद्र श्रीवास्तव अपने साथ ले गए। इस बीच में एक और बड़ी घटना यह घटी कि सोच की संगोष्ठी का ही विसर्जन हो गया। संकठा राय जी ने इस बीच में एक उपन्यास लिखा था जिसका कई हफ्तों पाठ चलता रहा और बाकी किसी को कुछ बोलने का मौका मिलना बंद हो गया। इसके बाद बागी नौजवान साहित्यकारों ने तय किया ,अब यहाँ नही जाना है । उसी दौरान कई गजलें और कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हुईं। कई काव्य गोष्ठियों में मैं आकाशवाणी में जाता ही रहता था। हमारे सहपाठियों में इस बात को लेकर धाक जमी हुई थी कि उनके बीच एक ऐसा साथी भी है जिसकी कवितायें रेडियो पर आती है। उन दिनो रेडियों का जलवा आज के टीवी से कहीं ज्यादा था। इस दौरान कई जानमाने अखबारों और पत्रिकाओं में मेरी कविताओं को स्थान मिला। लघु पत्रिकाओ में तो जिसका भी पता मुझे मिल जाता था, वहां मैं कविताएं भेजता रहता था। दिल्ली के कुछ संपादको ने मेरी कई कविताओं को वक्तव्य ठहराते हुए लौटाया तो कुछ संपादको ने उनको ही बहुत प्रमुखता से छापा भी। मैं आज तक नही समझ पाया कि यह क्यों हुआ ? इलाहाबाद में मेरे साथ पढऩेवालों में केवल सुभाष सिंह ही मेरे मित्र थे। बाकी मेरी संगत और उठना बैठना अपनी उम्र से बड़ो के बीच में ही होता था। शायद उनके सानिध्य ने ही मुझे सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग और सचेत बनाया। अन्यथा हो सकता है कि इलाहाबाद के अफसर बनाने के कारखाने से मैं किसी और रूप में निकलता। इसी दौरान एक घटना ने मुझे झकझोर कर रखा दिया। वहां एक भिक्षुक ग्रह में यातनाओं और अमानवीय बर्ताव की जो खबरें हमें मिलीं, उसकी पुष्टि के बाद मैं हफ्तों बेचैन रहा। इसे लेकर अनुग्रह भैया ने लंबी लड़ाई लड़ी और अंततोगत्वा जीत हुई। उसी दौरान दिनमान के विशेष संवाददाता श्री रामसेवक श्रीवास्तव इलाहाबाद आए। उनसे मुलाकात के बाद मैने दिनमान को सारे तथ्य भेजे। दिनमान में छपी रिपोर्ट के बाद जो चमत्कारिक असर हुआ उसके बाद मुझे लगा िक शायद पत्रकारिता का रास्ता और रास्तों से बेहतर है तथा इसकी मदद से हम बहुत से बेजुबान लोगों के लिए लड़ाई लड़ सकते हैं। मुझे लगा, जो काम आंदोलन भी नहीं कर सकते वह काम पत्रकारिता कर सकती है। मुझे इस बात का संतोष है िक मेरी यह सोच गलत नहीं निकली। उसी दौरान अनुग्रह भैया के सानिध्य में मैने जमीनी हकीकत और आम आदमी की पीड़ा को बहुत करीब से देखा और कलम चलने लगी। कविताएं गायब होने लगीं। हालाँकि तब मेरे कई साथी मेरे पत्रकार बनने के खिलाफ थे। एक मेघावी छात्र मानते हुए वे मुझमें अफसर बनने की संभावना देखते थे और पत्रकारिता के बारे में उनकी अच्छी राय नहीं थी। मैने तमाम भयादोहन के बीच इस अंधी गली का वरण किया । उसी दौरान संयोग से मेरा लिखना देख कर 1983 के आखिर में जनसत्ता ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों का संवाददाता बना दिया। राजेश जोशी (आजकल बीबीसी लंदन में) उस समय इलाहाबाद में पढऩे आए तो वे भी मेरे साथ पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। मेरे साथ टाइम्स आफ इंडिया के विक्रम गुलाटी,अमृत प्रभात के हरीश मिश्र समेत कुछ युवा साथियों की एक टीम ने वहां कुछ ही समय में हंगामा कर दिया था। इस बीच में मैने डा. रामनरेश त्रिपाठी को अपना गुरू बनाने का फैसला किया क्योंकि वही वहां के पत्रकारों में मुझे सबसे विद्वान और ईमानदार लगे। उन्होने मुझे बहुत स्नेह दिया और काफ़ी कुछ सिखाया। डीएलए के आजकल संपादक श्री सुभाष राय जी के साथ भी मैं काफ़ी समय रहा और उनसे काफ़ी सीखा। उसी दौरान हेमंत तिवारी मेरे सानिध्य में पत्रकारिता सीखने लगे थे। अजीब संयोग था ,एक प्रशिक्षणार्थी पत्रकार को एक छोटे भाई के रूप में शिष्य भी मिल गया था।
इलाहाबाद एक करिश्माई शहर है। जो एक - दो बार भी यहाँ आता है, उसे भूल नहीं पाता, ऐसे में शहर की मुख्यधारा में शामिल मुझ जैसा व्यक्ति उससे अलग कैसे हो सकता है? भले ही इलाहाबाद छूटे 21 साल हो गया हो पर उस शहर से मैं एक दिन के लिए भी अलग नहीं हुआ हूं। शहर भी मुझे हमेशा याद करता रहता है। मैं इलाहाबाद में जुलाई 1986 तक रहा। एक नया अखबार चौथी दुनिया निकल रहा था जिसमें मुझे लखनऊ संवाददाता के रूप में नियुक्ति मिली और दिल्ली बुलाया गया। पर संयोग से लखनऊ मुझे जाने नहीं दिया गया। १९८९ के आखिर तक यहाँ काम करने के बाद मैं अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में राजनीतिक संवाददाता के रूप में काम करने लगा। इस दौरान २००१ तक काफ़ी भाग दौड़ रही। २००१ के बाद २००६ तक जनसत्ता एक्सप्रेस तथा इंडियन एक्सप्रेस लखनऊ के लिए अलग-अलग कई भूमिकाओं के अलावा संपादक का प्रभार भी संभाला। बीते २ साल से हरिभूमि के दिल्ली संस्करण में स्थानीय सपादक की भूमिका निभा रहा हूँ ।
मेरी छोटी सी पृष्ठभूमि है यह । जहां तक रचना प्रक्रिया का सवाल है तो उसके बारे में तमाम विद्वानो ने काफ़ी कुछ लिखा है। मैं कोई विद्वान नहीं हूं । मेरे मन में जो भाव आते रहे उनको कागजों पर उतारता रहा। पत्रकारिता में आने के बाद ढ़ाई दशक के दौरान मैने बस गिनी -चुनी कविताऐं ही लिखी । उसकी एक वजह शायद गद्य में की जानेवाली अनिवार्य अभिव्यक्ति है। इलाहाबाद से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता में उतरने के बाद सारा माहौल ही बदलता दिखने लगा। राजनीतिक पत्रकारिता समय बहुत मांगती है और उसके बीच कविता-कहानी के लिए भला कहां मौका मिलता है? 2006 में भारतीय डाक तंत्र पर नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का एक लेख एनसीईआरटी ने आठवीं कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक में भी शामिल किया है। इसके बाद से कुछ करीबी साथिओं का दबाव बन रहा है , संकलन छापा जाए ।फिलहाल कविताएं अपने मित्रों और विद्वान पाठको के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। वे इसे पढ़ कर अगर चाहेंगे तो संकलन भी छपेगा ही। समाज को बदलने का सपना देखनेवाली इन कविताओं में कुछ है भी या नही यह तो मूल्यांकन आप ही करेंगे।
आदर सहित ,
आपका

अरविंद कुमार सिंह
नयी दिल्ली 7 अगस्त 2008

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

मेरा संकल्प

मेरे दोस्त
पथरीली राहों पर अविराम
बढ़ते रहने का मेरा सं·ल्प
लहू-लुहान होते पांवो से
नहीं रूकेगा.

मैं देखना चाहता हूं
समग्र परिवेश,
जहां फैल रहा है
दहशत का धुंआ.
आदमी जहां घुंट रहा है
जहरीली गैसों से

गोबर से गेंहू निकालता है जहां
भूखा आदमी
भूखे कुत्ते
बच्चों के हाथों से
निवाला छीन भागते हैं
बाज,सोते मजूर की
पसलियां निहारता है आधी रात

कोयल की कूक प्यारी लगती है जहां
और अपशकुन होता है
कौवे का बोलना

तमाम अछूती राहों से
होता हुआ
मैं गुजरना चाहता हूं
खुली आंखों से पढऩा चाहता हूं
समग्र परिवेश
तमाम अनखुले पेज
मैं खुद खोलना चाहता हूं

बहुत दूर तक
निकल जाना चाहता है मेरा संकल्प
वहां त·
जहां धरती और आकाश दोनो मिलते हैं
और बूढ़ी दादी का स्वर्ग
जहां से शुरू होता है.

ताज महल के नाम

ताज,मैं भी जानता हूं तुम्हारा राज
तुम्हारे मूक श्वेत प्रस्तरों की आहट
बहुत कुछ बयान कर जाती है खुद

वह प्रेम पुष्प,अकाल में काल कवलित हो
मुरझाया था
ब्रह्म ने अपना बज्र गिराया था.
शाह,जहां में आज भी
तुम्हारे पवित्र प्रेम की यादगार में
विधवा श्वेत प्रस्तर,·कुछ कह रहे हैं
और सदियों से हम उसकी भाषा बूझने की
कोशिश कर रहे हैं

शाह,मृत्यु निराकार,दिया तुमने रूप साकार
यमुना की लहरें,पवन के थपेड़े
कांपती धरती,आंधी तूफान
अनगिनत लुटेरे और बेईमान
इस समाधि से टकराए हैं
महज चूर होने के लिए
मौन संगमरमर,तुम्हारी याद में
एक पैर पर खड़े हैं

सुनहरी शाम
शोर मत करो बटोही
शांत,सुप्त-प्रेम लीन शाह
कहीं जग न जाये।

विकल्प

भागदौड़ मची है
शहर से गांव
गांव से शहर के बीच
दौड़ रहे हैं मृगतृष्णा में
रोटियां खोजते लोग
और कुछ
जो रोटियां तलाशते थक गए हैं
पेट थामें फुटबाथों पर लेटे लेटे
भिड़ा रहे जुगत
रोटी हथियाने का .

जिनके पास रोटी है
वे गोलबंद कर रहे हैं
भूखों की फौज
नारे लगा रहे हैं
शासन संवेदनहीन लोगों के पास है
तभी लोग भूखे हैं
तख्त बदल दो ताज बदल दो
तभी मिलेगी
सबको रोटी
सबको रोजी
सबको इज्जत

भूखा पेट
विकल्प देखता है
नारा गूंजता है
तख्त बदल दो
ताज बदल दो
राजा नहीं फकीर है
देश की तकदीर है

कुछ और नारे लगते हैं
मंदिर वहीं बनाऐंगे
भय-भूख से मुक्ति दिलाऐंगे
और कुछ नारे
डीएम एसपी बना रहे हैं

नारो के बीच
गोलबंदी में लगे लोग
रोटियां भी बांटते हैं
और भेड़ बन जाते हैं
तमाम भूखे-नंगे लोग

लुभावने नारों के बीच
भूखे लोग
मंदिर बनवाने के लिए
ताज सौंप देते हैं
मगर यह क्या मंदिर बनना तो दूर
झोपडिय़ां भी उजड़ गयीं
वादो पर जिंदा फौज की

बार बार मिलते हैं नए नायक
बार-बार मिलते हैं नए नारे
हर नारे में होता है राज
बदल दो तख्त और ताज

तख्त और ताज बदलते
धनिया और होरी की तीसरी पीढ़ी
घुटनो में अपना पेट छिपाए
आसमान तले नए नए सपने देख रहे हैं
वे इंतजार कर रहे हैं
पांच साल बीतने का
ताकि एक बार फि र से
धोके बाजो को सबक सिखा सकें .

वादों पर जिंदा फौजें
लगातार बदलती हैं ताज
लाती हैं नया राज
पर उनकी पसलियां मांसल क्यों नहीं होती
भूख प्रबल हो जाती है
तो चीख नगाड़ो के बीच खो जाती है
राजा नहीं फकीर है॥
सारे वादे पूरे हो गए

एक बार-दो बार कितनी बार
एक दशक दो दशक कितने दशक
इंतजार करेंगे
रोटी और बेहतर जीवन का
कभी तो घडा़ फूटेगा
जिनमें भरे हैं ये वादे
कभी तो सुबह होगी
कोई तो विकल्प नि·लेगा
कोई तो अपना असली कमांडर बनेगा।

तैमूर

सुना था बहुत पहले
तैमूर दिल्ली आया था
लेकर सैनिको की विशाल टुकडिय़ां
सरेआम कत्ल,अत्याचार
लूट लिए गए थे असहाय लोग
लगा कर खडग़ों की नोक
और एक बालक की वीरता पर
प्रभावित तैमूर
छोड़ जगहें लूटना शेष
लौट गया था अपने देश

वह वीर बालक तो नहीं रहा
पर तैमूर अपनी विरासत सौंप गया
अगणित तैमूरों को
सुनता हूं,तैमूर ही तैमूर हैं दिल्ली में
शरीफ चोले में,सुंदर लिबास में
आंधी सा आते हैं,तूफान से चले जाते हैं
लूट अपना यह देश
सारे माल विदेशी बैंको में जमा कर आते हैं

स्वस्थ देश का रक्त लिया चूस
कौन था वह श्वान,नहीं हो सकी पहचान
खबर है िक एक सबल स्वान से टक्कर के बाद
भाग गया हार कर वह तैमूर
और वह मांस के लोथडो़ पर भिड़ गया
मांस पिंड साफ क र गया छोड़ अस्थि
अलग देश को लगायी दौड़
बनवाया नया कारखाना
चलाया नूतन उद्योग

अस्थियों पर अब भी चंद स्वान भिड़े हैं
कंकाल अब भी यहां बहुत बिखरे हैं
कुछ दिन बाद
एक और तैमूर आएगा
और वह कंकाल भी बीन ले जाएगा.
नोट-यह पहली रचना है जो 1976 में लिखी गयी थी.

रात

रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन मे
लाख कोशिश की मगर राज समझ न पाया।

कर तेरी याद
रात भर रोया
गिनता तारे रहा
उदासी में नहीं सोया
प्रात सूर्योदय की बात समझ न पाया

दिन गुजरते गए
वर्ष मास बना
कितनी उदासी में मैने
जिंदगी का ख्वाब बुना
कौन रोता है आखिर
मेरे घर के पिछवाड़े हर शाम
लाख निगरानी की मगर आवाज समझ न पाया

थके सूरज ने
शाम को ली अंगड़ाई
रात फिर मेरे आंगन में उतर आयी
सोचता हूँ मिली मुझे
उपलब्धियां-विफलताऐं कितनी
मगर यह बात आज तक समझ न पाया
रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन में।

अकाल

लगी हरी फसलें मुरझाने
क्या हो गया सिवान को
लगता अबकी भी अनाज
न पहुंचेगा खलिहान में

भरे अषाढ़ में बैल मर गया
अब भी कर्जा, रोज तगादा नाको दम है
अभी अमीन या पटवारी नहीं आ रहे यह क्या कम है

बाबू अबकी भी लगता है
पशु प्राणी भूखों मर जाएंगे
पहले बाढ़ और अबकी सूखा
लोग भला क्या खाएंगे

एक ओर से सेठ नोचता
दूजे यह महंगाई
क्या यह सब दिखता है
खून पी रहा भाई भाई

कैसी विपदा आयी मौसमी
बज्र गिर गया सीने पर
सुखई को मैं रोक रहा था
बात मान परदेश न जाता
न दब मरता खान में