बुधवार, 20 अगस्त 2008

पाठक दोस्तों से अपनी बात

मेरे बहुत से मित्रों को यह संकलन देखकर हैरत हो सकती है क्योंकि उन्होने मुझे बीत ढाई दशक से एक पत्रकार के रूप में ही देखा है। मैं कवि होने का दावा भी नहीं करता पर इलाहाबाद की गलियों में कभी कवि और लेखक होने का सपना जरूर देखा करता था। मुख्यधारा की पत्रकारिता में आने के बाद यह सपना कभी -कभार याद भी आता रहा। वह सपना भले ही सपना रहा हो मैं इस मामले में खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं कि मैने सर्वश्री स्व.रघुपति सहाय फिराक ,महादेवी वर्मा , शैलेश मटियानी, इलाचंद जोशी,डा.जगदीश गुप्त, प्रो.विजयदेव नारायण शाही, डा.रामकुमार वर्मा,भैरव प्रसाद गुप्त और केशव प्रसाद मिश्र से लेकर सत्य प्रकाश मिश्रा जी जैसी कई नामी गिरामी हस्तियों को बहुत करीब से देखा है, उनसे बहुत कुछ सीखा है और उनका स्नेह पात्र भी रहा हूं। महान कथाकार अमरकान्त जी तथा मार्कण्डेयजी से काफी कुछ सीखने समझने को अकसर मिलता रहा। एक पत्रकार के रूप में मै आज जहाँ कहीं हूं वह इन महान साहित्यकारों की स्नेहछाया के साथ मेरे अग्रज और अभिभावक श्री अनुग्रह नारायण सिंह और मेरे गुरू डा. रामनरेश त्रिपाठी के आशीष का परिणाम है। जहां तक कविताओ का सवाल है जो कुछ लिखा उसमें से काफी कुछ तो दीमको की ही भेंट चढ़ गया। इस नाते मैं इसे पढऩेवाले मिंत्रों और विद्वानो से यही निवेदन करना चाहूंगा कि वे इसे पढ़ते समय इस बात का जरूर ध्यान रखें कि ९५ फीसदी कवितायें स्नातक की पढ़ाई से पहले और नवीं कक्षा के दौर की हैं। अब ये कैसी हैं और किन मनोभावों के बीच लिखी गयी हैं इस पृष्ठभूमि से आसानी से समझा जा सकता है। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई में अपना बहुत कु छ गंवा देनेवाले बस्ती जिले के राजपूतों के क्रांतिकारी गांव गुंडा कुवर ( यह नाम भी अंग्रेजों ने तोहफे में दिया था) में 7 अप्रैल 1965 को जन्म लेने के बाद जो परिवेश मिला,वही मेरी असली बुनियाद है। करीब सालाना आयोजन बन चुकी घाघरा की बाढ़ ने तैरना सिखा दिया था। गांव को ठीक से समझ भी नहीं पाया था कि पिताजी के साथ इधर से उधर कई जिलों में भटक ता रहा। इन सड़को ने जो कुछ सिखाया शायद वह किताबों से काफी ज्यादा है। संयोग से बचपन से ही देश के कई हिस्से मेरे नन्हे पांव की परिधि में आए। समय के साथ विरासत मे मिले सामंती संस्कार जाने कब हवा में विलीन हो गए और कलम खुद चलने लगी। बहुत कुछ पीछे छूट गया लेकिन मेरी जननी श्रीमती प्रेम कुमारी सिंह हमेशा एक ताकत की तरह मेरे दिल के करीब रहीं और कठिन से कठिन समय में वह मुझे सहारा देती रहीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढा़ई के दौरान वहां के खुले साहित्यिक परिवेश में अपनी रचनाओं को बंद पन्नों से बाहर निकालने का साहस मैं जुटा सका। वहां के जानेमाने एडवोकेट श्री संकठा राय के घर बेली रोड पर स्थापित साह्त्यिक संस्था सोच की बैठको में मुझ जैसे तमाम युवा रचनाकारों के हिचको को तोड़ा। इस संस्था के अध्यक्ष श्री धनंजय सिंह बघेल थे और मैं महासचिव। मेरा काम अखबारों में साप्ताहिक संगोष्ठी की रिपोर्ट भी अखबारों तक पहुंचाना था। कुछ ही समय में काफी लंबी चौड़ी कवरेज़ इस संस्था को मिलने लगी थी। इस संगोष्ठी के लिए चूंकि सारा खर्च श्री राय करते थे इस नाते उनको इसका संरक्षक बनाया गया था। इस संस्था ने नगर की तमाम युवा और हतोत्साहित कविओं और लेखको को नयी ऊर्जा दी।सोच की साप्ताहिक संगोष्ठी में कोई न कोई नामी गिरामी लेखक कवि मौजूद रहता था। इस नाते इसे कवर करने पत्रकार भी आने लगे। हलाँकि आठवीं कक्षा से ही मै गुपचुप ढ़ंग से कुछ लिखने-पढऩे लगा था और कुछ कविताऐं -कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपी भी थीं,पर इनको लेकर मेरे भीतर अजीबोगरीब संकोच था। यह सोच की संगोष्ठी में टूटा और कार्बन रख कर कविताओं को मैं स्व. हरिवंश राय बच्चन से लेकर बहुत से शीर्ष रचनाकारों तक भेजने ही नहीं लगा बल्कि तमाम मामलों में उनसे जिरह भी करने लगा। बच्चन जी को मेरी कई कविताऐं पसंद आयीं और उन्होने पत्र लिख कर मुझे प्रोत्साहन भी दिया। लेकिन एक संगोष्ठी में जानेमाने कथा कार मार्कंडेय जी ने मेरे कुछ जूनियर साथियों के सामने मुझे गजलें न लिखने की सख्त हिदायत दे दी । इस घटना से मैं आहत भी हुआ और नाराज भी। लेकिन यह नाराजगी गजलों की डायरी पर उतरी और मैने उसे आग के हवाले कर दी। एक डायरी मेरे एक मित्र नरेंद्र श्रीवास्तव अपने साथ ले गए। इस बीच में एक और बड़ी घटना यह घटी कि सोच की संगोष्ठी का ही विसर्जन हो गया। संकठा राय जी ने इस बीच में एक उपन्यास लिखा था जिसका कई हफ्तों पाठ चलता रहा और बाकी किसी को कुछ बोलने का मौका मिलना बंद हो गया। इसके बाद बागी नौजवान साहित्यकारों ने तय किया ,अब यहाँ नही जाना है । उसी दौरान कई गजलें और कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हुईं। कई काव्य गोष्ठियों में मैं आकाशवाणी में जाता ही रहता था। हमारे सहपाठियों में इस बात को लेकर धाक जमी हुई थी कि उनके बीच एक ऐसा साथी भी है जिसकी कवितायें रेडियो पर आती है। उन दिनो रेडियों का जलवा आज के टीवी से कहीं ज्यादा था। इस दौरान कई जानमाने अखबारों और पत्रिकाओं में मेरी कविताओं को स्थान मिला। लघु पत्रिकाओ में तो जिसका भी पता मुझे मिल जाता था, वहां मैं कविताएं भेजता रहता था। दिल्ली के कुछ संपादको ने मेरी कई कविताओं को वक्तव्य ठहराते हुए लौटाया तो कुछ संपादको ने उनको ही बहुत प्रमुखता से छापा भी। मैं आज तक नही समझ पाया कि यह क्यों हुआ ? इलाहाबाद में मेरे साथ पढऩेवालों में केवल सुभाष सिंह ही मेरे मित्र थे। बाकी मेरी संगत और उठना बैठना अपनी उम्र से बड़ो के बीच में ही होता था। शायद उनके सानिध्य ने ही मुझे सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग और सचेत बनाया। अन्यथा हो सकता है कि इलाहाबाद के अफसर बनाने के कारखाने से मैं किसी और रूप में निकलता। इसी दौरान एक घटना ने मुझे झकझोर कर रखा दिया। वहां एक भिक्षुक ग्रह में यातनाओं और अमानवीय बर्ताव की जो खबरें हमें मिलीं, उसकी पुष्टि के बाद मैं हफ्तों बेचैन रहा। इसे लेकर अनुग्रह भैया ने लंबी लड़ाई लड़ी और अंततोगत्वा जीत हुई। उसी दौरान दिनमान के विशेष संवाददाता श्री रामसेवक श्रीवास्तव इलाहाबाद आए। उनसे मुलाकात के बाद मैने दिनमान को सारे तथ्य भेजे। दिनमान में छपी रिपोर्ट के बाद जो चमत्कारिक असर हुआ उसके बाद मुझे लगा िक शायद पत्रकारिता का रास्ता और रास्तों से बेहतर है तथा इसकी मदद से हम बहुत से बेजुबान लोगों के लिए लड़ाई लड़ सकते हैं। मुझे लगा, जो काम आंदोलन भी नहीं कर सकते वह काम पत्रकारिता कर सकती है। मुझे इस बात का संतोष है िक मेरी यह सोच गलत नहीं निकली। उसी दौरान अनुग्रह भैया के सानिध्य में मैने जमीनी हकीकत और आम आदमी की पीड़ा को बहुत करीब से देखा और कलम चलने लगी। कविताएं गायब होने लगीं। हालाँकि तब मेरे कई साथी मेरे पत्रकार बनने के खिलाफ थे। एक मेघावी छात्र मानते हुए वे मुझमें अफसर बनने की संभावना देखते थे और पत्रकारिता के बारे में उनकी अच्छी राय नहीं थी। मैने तमाम भयादोहन के बीच इस अंधी गली का वरण किया । उसी दौरान संयोग से मेरा लिखना देख कर 1983 के आखिर में जनसत्ता ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों का संवाददाता बना दिया। राजेश जोशी (आजकल बीबीसी लंदन में) उस समय इलाहाबाद में पढऩे आए तो वे भी मेरे साथ पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। मेरे साथ टाइम्स आफ इंडिया के विक्रम गुलाटी,अमृत प्रभात के हरीश मिश्र समेत कुछ युवा साथियों की एक टीम ने वहां कुछ ही समय में हंगामा कर दिया था। इस बीच में मैने डा. रामनरेश त्रिपाठी को अपना गुरू बनाने का फैसला किया क्योंकि वही वहां के पत्रकारों में मुझे सबसे विद्वान और ईमानदार लगे। उन्होने मुझे बहुत स्नेह दिया और काफ़ी कुछ सिखाया। डीएलए के आजकल संपादक श्री सुभाष राय जी के साथ भी मैं काफ़ी समय रहा और उनसे काफ़ी सीखा। उसी दौरान हेमंत तिवारी मेरे सानिध्य में पत्रकारिता सीखने लगे थे। अजीब संयोग था ,एक प्रशिक्षणार्थी पत्रकार को एक छोटे भाई के रूप में शिष्य भी मिल गया था।
इलाहाबाद एक करिश्माई शहर है। जो एक - दो बार भी यहाँ आता है, उसे भूल नहीं पाता, ऐसे में शहर की मुख्यधारा में शामिल मुझ जैसा व्यक्ति उससे अलग कैसे हो सकता है? भले ही इलाहाबाद छूटे 21 साल हो गया हो पर उस शहर से मैं एक दिन के लिए भी अलग नहीं हुआ हूं। शहर भी मुझे हमेशा याद करता रहता है। मैं इलाहाबाद में जुलाई 1986 तक रहा। एक नया अखबार चौथी दुनिया निकल रहा था जिसमें मुझे लखनऊ संवाददाता के रूप में नियुक्ति मिली और दिल्ली बुलाया गया। पर संयोग से लखनऊ मुझे जाने नहीं दिया गया। १९८९ के आखिर तक यहाँ काम करने के बाद मैं अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में राजनीतिक संवाददाता के रूप में काम करने लगा। इस दौरान २००१ तक काफ़ी भाग दौड़ रही। २००१ के बाद २००६ तक जनसत्ता एक्सप्रेस तथा इंडियन एक्सप्रेस लखनऊ के लिए अलग-अलग कई भूमिकाओं के अलावा संपादक का प्रभार भी संभाला। बीते २ साल से हरिभूमि के दिल्ली संस्करण में स्थानीय सपादक की भूमिका निभा रहा हूँ ।
मेरी छोटी सी पृष्ठभूमि है यह । जहां तक रचना प्रक्रिया का सवाल है तो उसके बारे में तमाम विद्वानो ने काफ़ी कुछ लिखा है। मैं कोई विद्वान नहीं हूं । मेरे मन में जो भाव आते रहे उनको कागजों पर उतारता रहा। पत्रकारिता में आने के बाद ढ़ाई दशक के दौरान मैने बस गिनी -चुनी कविताऐं ही लिखी । उसकी एक वजह शायद गद्य में की जानेवाली अनिवार्य अभिव्यक्ति है। इलाहाबाद से दिल्ली में राजनीतिक पत्रकारिता में उतरने के बाद सारा माहौल ही बदलता दिखने लगा। राजनीतिक पत्रकारिता समय बहुत मांगती है और उसके बीच कविता-कहानी के लिए भला कहां मौका मिलता है? 2006 में भारतीय डाक तंत्र पर नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया द्वारा मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का एक लेख एनसीईआरटी ने आठवीं कक्षा की हिंदी पाठ्यपुस्तक में भी शामिल किया है। इसके बाद से कुछ करीबी साथिओं का दबाव बन रहा है , संकलन छापा जाए ।फिलहाल कविताएं अपने मित्रों और विद्वान पाठको के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। वे इसे पढ़ कर अगर चाहेंगे तो संकलन भी छपेगा ही। समाज को बदलने का सपना देखनेवाली इन कविताओं में कुछ है भी या नही यह तो मूल्यांकन आप ही करेंगे।
आदर सहित ,
आपका

अरविंद कुमार सिंह
नयी दिल्ली 7 अगस्त 2008

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

मेरा संकल्प

मेरे दोस्त
पथरीली राहों पर अविराम
बढ़ते रहने का मेरा सं·ल्प
लहू-लुहान होते पांवो से
नहीं रूकेगा.

मैं देखना चाहता हूं
समग्र परिवेश,
जहां फैल रहा है
दहशत का धुंआ.
आदमी जहां घुंट रहा है
जहरीली गैसों से

गोबर से गेंहू निकालता है जहां
भूखा आदमी
भूखे कुत्ते
बच्चों के हाथों से
निवाला छीन भागते हैं
बाज,सोते मजूर की
पसलियां निहारता है आधी रात

कोयल की कूक प्यारी लगती है जहां
और अपशकुन होता है
कौवे का बोलना

तमाम अछूती राहों से
होता हुआ
मैं गुजरना चाहता हूं
खुली आंखों से पढऩा चाहता हूं
समग्र परिवेश
तमाम अनखुले पेज
मैं खुद खोलना चाहता हूं

बहुत दूर तक
निकल जाना चाहता है मेरा संकल्प
वहां त·
जहां धरती और आकाश दोनो मिलते हैं
और बूढ़ी दादी का स्वर्ग
जहां से शुरू होता है.

ताज महल के नाम

ताज,मैं भी जानता हूं तुम्हारा राज
तुम्हारे मूक श्वेत प्रस्तरों की आहट
बहुत कुछ बयान कर जाती है खुद

वह प्रेम पुष्प,अकाल में काल कवलित हो
मुरझाया था
ब्रह्म ने अपना बज्र गिराया था.
शाह,जहां में आज भी
तुम्हारे पवित्र प्रेम की यादगार में
विधवा श्वेत प्रस्तर,·कुछ कह रहे हैं
और सदियों से हम उसकी भाषा बूझने की
कोशिश कर रहे हैं

शाह,मृत्यु निराकार,दिया तुमने रूप साकार
यमुना की लहरें,पवन के थपेड़े
कांपती धरती,आंधी तूफान
अनगिनत लुटेरे और बेईमान
इस समाधि से टकराए हैं
महज चूर होने के लिए
मौन संगमरमर,तुम्हारी याद में
एक पैर पर खड़े हैं

सुनहरी शाम
शोर मत करो बटोही
शांत,सुप्त-प्रेम लीन शाह
कहीं जग न जाये।

विकल्प

भागदौड़ मची है
शहर से गांव
गांव से शहर के बीच
दौड़ रहे हैं मृगतृष्णा में
रोटियां खोजते लोग
और कुछ
जो रोटियां तलाशते थक गए हैं
पेट थामें फुटबाथों पर लेटे लेटे
भिड़ा रहे जुगत
रोटी हथियाने का .

जिनके पास रोटी है
वे गोलबंद कर रहे हैं
भूखों की फौज
नारे लगा रहे हैं
शासन संवेदनहीन लोगों के पास है
तभी लोग भूखे हैं
तख्त बदल दो ताज बदल दो
तभी मिलेगी
सबको रोटी
सबको रोजी
सबको इज्जत

भूखा पेट
विकल्प देखता है
नारा गूंजता है
तख्त बदल दो
ताज बदल दो
राजा नहीं फकीर है
देश की तकदीर है

कुछ और नारे लगते हैं
मंदिर वहीं बनाऐंगे
भय-भूख से मुक्ति दिलाऐंगे
और कुछ नारे
डीएम एसपी बना रहे हैं

नारो के बीच
गोलबंदी में लगे लोग
रोटियां भी बांटते हैं
और भेड़ बन जाते हैं
तमाम भूखे-नंगे लोग

लुभावने नारों के बीच
भूखे लोग
मंदिर बनवाने के लिए
ताज सौंप देते हैं
मगर यह क्या मंदिर बनना तो दूर
झोपडिय़ां भी उजड़ गयीं
वादो पर जिंदा फौज की

बार बार मिलते हैं नए नायक
बार-बार मिलते हैं नए नारे
हर नारे में होता है राज
बदल दो तख्त और ताज

तख्त और ताज बदलते
धनिया और होरी की तीसरी पीढ़ी
घुटनो में अपना पेट छिपाए
आसमान तले नए नए सपने देख रहे हैं
वे इंतजार कर रहे हैं
पांच साल बीतने का
ताकि एक बार फि र से
धोके बाजो को सबक सिखा सकें .

वादों पर जिंदा फौजें
लगातार बदलती हैं ताज
लाती हैं नया राज
पर उनकी पसलियां मांसल क्यों नहीं होती
भूख प्रबल हो जाती है
तो चीख नगाड़ो के बीच खो जाती है
राजा नहीं फकीर है॥
सारे वादे पूरे हो गए

एक बार-दो बार कितनी बार
एक दशक दो दशक कितने दशक
इंतजार करेंगे
रोटी और बेहतर जीवन का
कभी तो घडा़ फूटेगा
जिनमें भरे हैं ये वादे
कभी तो सुबह होगी
कोई तो विकल्प नि·लेगा
कोई तो अपना असली कमांडर बनेगा।

तैमूर

सुना था बहुत पहले
तैमूर दिल्ली आया था
लेकर सैनिको की विशाल टुकडिय़ां
सरेआम कत्ल,अत्याचार
लूट लिए गए थे असहाय लोग
लगा कर खडग़ों की नोक
और एक बालक की वीरता पर
प्रभावित तैमूर
छोड़ जगहें लूटना शेष
लौट गया था अपने देश

वह वीर बालक तो नहीं रहा
पर तैमूर अपनी विरासत सौंप गया
अगणित तैमूरों को
सुनता हूं,तैमूर ही तैमूर हैं दिल्ली में
शरीफ चोले में,सुंदर लिबास में
आंधी सा आते हैं,तूफान से चले जाते हैं
लूट अपना यह देश
सारे माल विदेशी बैंको में जमा कर आते हैं

स्वस्थ देश का रक्त लिया चूस
कौन था वह श्वान,नहीं हो सकी पहचान
खबर है िक एक सबल स्वान से टक्कर के बाद
भाग गया हार कर वह तैमूर
और वह मांस के लोथडो़ पर भिड़ गया
मांस पिंड साफ क र गया छोड़ अस्थि
अलग देश को लगायी दौड़
बनवाया नया कारखाना
चलाया नूतन उद्योग

अस्थियों पर अब भी चंद स्वान भिड़े हैं
कंकाल अब भी यहां बहुत बिखरे हैं
कुछ दिन बाद
एक और तैमूर आएगा
और वह कंकाल भी बीन ले जाएगा.
नोट-यह पहली रचना है जो 1976 में लिखी गयी थी.

रात

रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन मे
लाख कोशिश की मगर राज समझ न पाया।

कर तेरी याद
रात भर रोया
गिनता तारे रहा
उदासी में नहीं सोया
प्रात सूर्योदय की बात समझ न पाया

दिन गुजरते गए
वर्ष मास बना
कितनी उदासी में मैने
जिंदगी का ख्वाब बुना
कौन रोता है आखिर
मेरे घर के पिछवाड़े हर शाम
लाख निगरानी की मगर आवाज समझ न पाया

थके सूरज ने
शाम को ली अंगड़ाई
रात फिर मेरे आंगन में उतर आयी
सोचता हूँ मिली मुझे
उपलब्धियां-विफलताऐं कितनी
मगर यह बात आज तक समझ न पाया
रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन में।

अकाल

लगी हरी फसलें मुरझाने
क्या हो गया सिवान को
लगता अबकी भी अनाज
न पहुंचेगा खलिहान में

भरे अषाढ़ में बैल मर गया
अब भी कर्जा, रोज तगादा नाको दम है
अभी अमीन या पटवारी नहीं आ रहे यह क्या कम है

बाबू अबकी भी लगता है
पशु प्राणी भूखों मर जाएंगे
पहले बाढ़ और अबकी सूखा
लोग भला क्या खाएंगे

एक ओर से सेठ नोचता
दूजे यह महंगाई
क्या यह सब दिखता है
खून पी रहा भाई भाई

कैसी विपदा आयी मौसमी
बज्र गिर गया सीने पर
सुखई को मैं रोक रहा था
बात मान परदेश न जाता
न दब मरता खान में

हिम्मत हार् गयी

कब तब झेलें यह सब प्यारे
हिम्मत हार गयी

गमछा तार-तार
धोती भी आरपार दिखती है
झोपड़ी उजाड़ मरघट सी
किस्मत मार गयी

सूरज से संग
रोज कारिन्दा जमींदार का
आकर गाली दे जाता है
साहूकार के कर्ज और
पंसारी का रोज तगादा आता है
सुख को मार गया है लकवा
चीलों सा दुख मंडराता है

काठ हुआ तन
पत्थर सा मन
महंगाई कुल्हाडी सी
पावों पर कर वार गयी।
कब तक झेलें यह सब प्यारे
हिम्मत हार गयी।

ख़ुद को कितना .....

हमने कितनी बात की है,हम जमाना बदलेंगे
खुद को कितना बदल पाए, आओ सोचें तो सही
हमने हर डगर पर
रोड़े बिखेरे हैं
फूल बोया कभी तो
kaliyan भी तोड़े हैं
मोड़ी धारा कभी तो बाढ़ भी हमने ही लायी
हमने कितने बांध काटे आओ सोचे तो सही
जानकर जुड़ते गए
तोड़ा भी हमने जानकर
मिटना था किसके लिए
मर मिटे ओछी आन पर
आओ कोशिश करें तो
जाये बदल फिर यह जमीं
यह जमीं बदली अगर तो
आसमां बदलेगा ही
हमने बोया kantakon को , जिंदगी की राह पर
पैर में किसके चुभेंगे,आओ सोचें तो सही।

पुकार

हिमगिरि के ऊंचे शिखरोंसे
सागर की उठती लहरों से
तुम्हे पुकार रहा है कोई

सोए कब से अब जगो मीत
क्या रूदन नहीं सुना अब तक
उठकर धाओ, उठकर जाओ
देखो चीत्कार रहा है कोई .

सहते नित प्रति पदाघात
झेलते कुटिल तंत्र का चक्रवात
हे मौनव्रती-अब तोड़ो मौन
देखो,देखो घिर आए हैं बादल
फिर से अकाल के महाकाल के

जागो सेनानी समरक्षेत्र में
देखो ललकार रहा है कोई
तुम्हें पुकार रहा है कोई ।

बाढ़

रूदन चीत्कार और
चारों तरफ बाढ़ बाढ़
आखों में तूफान लिए गांव रोता
शहर को गए खबर
हुई देर बहुत मगर
होकर बेफिकर अभी भी सो रहा है शहर
टकराने लगी घर से लहर
फिर भी इंतजार है आंखों में गांव के
आती होगी फौज अब शहर से
रात भर निहारते
हार गया इंतजार
भोर हुआ सूरज ने दिखलाया
मरी मछलियां, मेरे आदमी, मरे मवेशी
अगले रोज छपी खबर
पानी में किसी ने चुपके से
घोल दिया था जहर

महानगरी से एक चिट्ठी अम्मा को

इस महानगरी में
कुछ भी तो नहीं है मां
एक छलावे के सिवा

चौड़ी सड़को के सीने पर
चौबीसों घंटे दौड़ लगाता है
इस महानगरी का मानव
एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की होड़ में
धुंआ उड़ाती मोटरों के साथ
जाने कितने अधजले ख्वाब तैर रहे हैं
यहां की हवाओं में
धुंआ जवानों के भी आसपास मंडराता है
और धुओं में वे अपने गम को छिपाते हैं

यहां के विद्यामंदिरों में
प्रतिभा नहीं
वर्ग और राशि पूछी जाती है
एक छलावा पढ़ते हैं हम
यहां की चमक -दमक के पीछे
जाने कितनी कालिमा है

गगनचुंबी हवेलियों में भी यहां
रहते हैं चंद लोग
और हजारों नंगे भूखे फुटबाथों पर
दिन रात धुआं फेंकती हैं,यहां की चिमनियां
एक -एक मालिक के हजारों मजदूर हैं
उनके स्याह चेहरे पढऩे लायक भी बन पाया हूं मां
फिर और क्या-क्या पढ़ पाऊं गा?

परिणाम

परिणाम
यों तो पहले से ही मामूल है मुझे
मगर इन दिनों
जाने कितनी परीक्षाओं से
गुजर रहा हूं
जाने कितनी अर्जियों में
नत्थी हूं मैं
पोस्टल आर्र्डर की तरह

यह भी मालूम है
िक इन अग्रि परीक्षाओं में
मुझे ही भस्म करनी है अपनी देह
फिर भी मैं
परीक्षाओं से गुजर रहा हूं
चुनौती तो चुनौती है.

नयी दुनिया में

जाने क्यों,जाने कैसे
यंत्र से मानव बनने लगा हूं
कोई तिलस्मी पहाड़ी
अपनी ओर खींच रही है मुझे
मैं जाने लगा हूं उस ओर
यंत्रवत मानव की तरह

मुझे फूल भी सुहाने लगे हैं अब
मेरे भीतर भी खिलने लगे हैं कुछ फूल
महकने लगी है खुशबू
मेरे बंजर मन में
फूटने लगी हैं कई कोपलें
धरती भी भाने लगी है मुझे
झरने भी फूटने लगे हैं

सोच-सोच कर परेशान हूं मैं
कौन तिलस्मी पहाड़ी
बर्र्फ की मानिंद पिछला रही है
लोहे के इस पहाड़ को
बर्र्फ के ताप में
लोहे का पिघलना
कौन सी दुनिया है यह
वैसे जैसे मरूभूमि मे हरीतिमा और बगीची लगाना
रेगिस्तान होते बंजर में
हरी कोपलें
एक नयी दुनिया नहीं तो और क्या?

अखबार

बासी हो गयी है
कल रात की खबर
हमारी आखों को चाहिए
रोज खून से तर-बतर अखबार
जाने क्यों इतनी बदल गयी है हमारी मानसि·ता
सहानुभूति महज शब्दकोष में दर्ज
अर्थहीन शब्द

सब कुछ घटते देख
चुपचाप हम गुजर जाते हैं
मौन का कुहासा छा गया है मुखरता पर
हम लडऩा नहीं चाहते
सिर्र्फ तमाम गंभीर हादशों से भरे अखबार
देखना चाहते हैं
कहाँ आदमी बूटों से रौंदा जा रहा है
कहाँ बुझ गयी जवानो की जीवन ज्योति
भूख-शीतलहरी में
कितनो ने दम तोड़ा
हमें चाहिए
भोर में चाय की चुस्किओं के साथ
ऐसे ही अखबार
क्योंकि कल की सारी खबरें बासी हो गयी हैं।

खामोशी

मेरे मीत,
रात का गहन अंधकार,
रच बस गया है मेरे भीतर,
चांद, तारे, सूर्य,रोशनी, प्रकाश ,
अपने लिए,
महज arthheen शब्द बन कर रह गये हैं.

जाने कितने युग से,
ठहरी है मेरी जिंदगी,
एक ऐसे अज्ञात, गैर जरूरी कोने में,
फिट हो गया हूं
जहां से कोई गुजरता भी नहीं,
ऐसा विराट अंध सागर है,इर्द-गिर्द
कुछ देख भी नहीं पाता
हां chattano से takraati लहरों की धुन
और बहुत कुछ सिर्फ सुन सकता हूं.

और अपने कानों से बहुत कुछ ,
aank सकता हूं,
aashankaye जता सकता हूँ
सपने बुन सकता हूं
पर सब कुछ जानने के बाद भी
खामोशी मेरी विवशता है,
मैं कैद क्यो हों
मेरा गुनाह क्या है?

एक पाती जमनापार से

तुमने/कभी-कभार देखी होगी
चौड़ी छातीवाली कोई नदी
यहां हम हैं िक रोज दोबार
और कभी तो कई-बार
पार कर जाते हैं, 'जमना (यमुना)

वही जमना/जो सदूर यमुनोत्री से
दिल्ली आकर जमना बन जाती है।
वैसे, जैसे अपने गांव का धनई
बन जाता है शहर में धनराज

जमना तो तुमने भी देखी है
कुम्भ के नहावन में
वही नदी, जो गंगा में मिलकर
संगम बनाती है
संगम के नीचे एक और नदी है
(सरस्वती), जो न तुमने देखा न हमने
पर सब कहते है तो होगी कोई नदी
पुराने इलाहाबाद की तरह
जो कभी प्रयाग था

लेकिन दिल्ली की जमना
प्रयाग सी अथाह नदी नहीं है
सोच लो कितनी बड़ी होगी यहां जमना
िक हमारे जैसे छोटे पांव
रोज दिन में दो बार पार कर जाते हैं
हम अकेले नहीं/हजार-लाख लोग
बड़े-बूढ़े सब पार करते हैं, जमना
उस ओर जाते है, जहां संसद है/
बड़ी -बड़ी इमारतें हैं/जिसमें
रखी फाइलें रोटी उगाती हैं
पर हम तैर कर नहीं जाते जमना
तैरने को जमना में धरा भी क्या है
पानी तो यहां लोगों ने सोख लिया है।

बस साल में एक बार गुस्साती है जमना
अपने सरजू ,गोमती, सई और केन ·ी तरह
लेकिन उसका पानी इंडिया गेट तक नहीं आता/
न संसद तक जाता है
वह तो अपनी गोद में बसी
झोपडिय़ों को उजाड़/उन्हें भी
काफी राहत दिला जाती है
और इसी बदौलत/साल भर
आबाद रहते है हजारो लोग

जमनापार २० लाख दुखियारे वोटरों की महाबस्ती है
मैं भी रहता हूं/पर वोटर नहीं हूं
बस दिली तसल्ली को मैं अब
उस हिस्से को भी जमनापार कहने लगा हूं
जहां संसद है/

जमना पार
कुलीन और दुखियारे
दोनों की महाबस्ती है
बड़ी ही होती जा रही है/सुरसा की तरह
यहां भी अब कोई किसी को जानता/पहचानता नहीं
मकान मालिक भी किरायेदार का नाम नही
हर माह उससे मिलनेवाली रकम चीन्हता है।

कागजी शेरों और फाइलों से भरे इस शहर में
हर फाइल को अपनी हैसियत मालूम है
हम सभी किसी न किसी फाइल के हिस्से हैं
बिजली, पानी, राशन या पुलिस की फाइल में
कहीं न कही नत्थी सब हैं।
फाइलें ही फाइलें
पुलिस/फायर ब्रिगड/मोटरें
चौड़ी सड़के और दिन रात दौड़ते
आदमी की भीड़ में तुम भी क्यों
शामिल होना चाहते हो

क्या दिन क्या रात/बस दौड़ता ही रहता है यह शहर
फाइलें तो यहां इतनी है/जिसे ढोते-ढोते
हजारों लोग पेंशन लेने लगें है अब
इतनी फाइले ·िक गांव के गाव दब जायें
दरअसल यहा की फाइलों से गांव दबे भी हैं।
साफपानी और पहचान/यहां खोजते क्यों हो
यहां तो भूख से तड़ता आदमी भी
एन.एस.डी. का कोई भूखा पात्र लगता है।
घायल को लोग मर जाने देते है
कोई किसी का पता नहीं बताता
सबको अपना ठिकाना भी कहां पता
ट्राली में लदे भूसे की तरह
डीटीसी आदमी लादे आती है जमना पार
और वैसे ही जाती है जमना पार से।

हत्यारा सूरज

उजला हत्यारा सूरज
सांझ को ढ़ेरों लहू बिखेर
झाड़ झंखाड़ो में खुद का तन छिपाता,
एकाएक खो जाता है
समंदर की अतल गहराइयों में

छटपटाहट और चीखें
दबाने के लिए झींगुर छेड़ देते हैं अपना राग
पक्षी, मुंह मांगी मुरादें पा·र
मौन साध जाते हैं,

रात-रातों-रात
सारा खून साफ·र
शिनाख्त मिटा
सुबह फिर पेश करती है
अपने बहुत 'पाक -साफ सूरज को

फिर भी कानो-कान
फैल ही जाती है सच्चाई
जिसे विपक्षी अफवाहें और
उजाला धूमिल करने का
कुचक्र बताता
उलटे आग बबूला हो जाता है सूरज


पक्षी मधुर आवाज में
राग सुनाने लगते है,
नारे लगाते हैं और निरीह जानवर
और जयकारा से गूँज जाता है सारा जंगल

लेकिन फिर-
चकाचौध उजाला बिखेर देने के बाद
अनुभवी चोरों की तरह
शहर की बिजली काट
लंबा गोल माल कर
फिर से गोल हो जाता है सूरज

और रात फिर अपने सूरज को
अपने आंचल में छिपा
काली शाल फेंकती है
धरती पर
ताकि सब सो जाये

मगर इधर
जब से चौकन्ना रहने लगा है
आदमी
निगहबानी करने लगी है दिशाऐं
सूरज डरने लगा है
बेनकाब होने से

और रात भी
आशंकित रहने लगी है
अपने फरेब की
नाकायमाबी पर
आखिर कब तक अपनी काली शाल के सहारे
वह भी बचा पाऐगी
अपने सूरज को
कब तक ?

बौना आदमी

उगलती रही होगी धरती सोना
तुम्हारे बचपन में
मैने तो रसायन से ही देखा है
खेतों को गर्भ धरते
बहती रही होगी
दूध घी की नदियां
यहां तो ताल पोखरे भी नहीं देखे हमने
पाउडर में ही बीता है
अपना बचपन
होनहार को खोजती रही होगी नौकरी
तुम्हारे जमाने में
हमारे जमाने में तो
होनहार के गले में फंदा है

अपने अतीत का सपना हमें क्यो दिखाते हो
यहां तो सपने भी मिलावटी हैं
बौनी पीढ़ी के मौन प्रतिनिधि हैं हम

पर बौनी काया
तुमसे अधिक दिमाग रखती है
बौनी काया ने नाप लिया है आसमान
धरती के विनाश का
कर लिया है सारा इंतजाम
हिरोशिमा तो एक नमूना था.

बौने होते आदमी का दिमाग
सबसे उर्वर है
चांद पर सैर कर रहा है वह
अपने नक्षत्र बना दिए हैं
अपने ग्रह बना -बिगाड़ रहा है.

आवाज

जब कभी मुझसे टकराता आकर
कोई झोंका सर्द पवन का ,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं।

घूमता हूं,बेम·सद
पेड़ो की झुरमुटों/बागों की सनसनाहट बीच,
भागता हूं दूर-दूर,
शोर और भीड़ भरे चौराहों से/
जब कोई मुर्गा देता है बांक अलस्सुबह,
और कलरव पक्षियों का गूंजता है,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं/

जानता हूं नही सुनता,
मेरी भी आवाज कोई ,
लाखों चीखों-कराहटों के बीच
पर मुझे संतोष होता है,
एक बार भी जब तुमको पुकार लेता हूं।

लुहार के घन प्रहार सी,
दीवार घड़ी की टिक -टिक झन्ना देती है मेरे दिमाग को
जब कोई लावारिस बबूल का काँटा
भेदता है मेरे तलुए को ,
दर्द से तिलमिला मैं फिर
तुम्हें आवाज देता हं।

एशियाड-82 के नाम दो कविता

-1-

देश के उजले परिवेश (एशियाड)में
चीथड़े फिट नहीं होंगे
इसलिए अच्छी सोच है यह
भिखारियों की जमात
राजधानी से हटा दी जाये

नंगे भूखे देश पर लिहाफ है एशियाड
क्यांकि विदेशी मेहमानो के सामने
खूबसूरत संसद के वासिंदे
सुनहले फ्रेमवाले चश्मों से देश को देख रहे नौकरशाह
कैसे सहन करेंगे ,
प्रतिष्ठा का सवाल है

कैसे सहन करेंगे fक बस्तियों की वीरानगी का प्रतीक
खेल का मैदान
जिसमें भूखे देश के कंकाल का रिसता रक्त लगा हो
वह अपमानित हो।

-2-

कोई बात नहीं दोस्त
हम यह खेल नहीं देख पाऐंगे
वह खेल ही क्या कम था
जब चक्रवातों से भी बेरहमी के साथ
इंसानो ने ही उजाड़ दिया था हमें

बिखरे उपादान समेट हम
अपने ही देश में दरबदर
जो खेल देख रहे हैं,वह छोटा तो नहीं ।

अमावस

ठुकराए गए
बैरंग पत्र की मानिंद
आरएलओ सी दुनिया में
एक कोने पड़ा हूं
ऐसे फूल भी नहीं हैं
जिसमें कोई गंध
कोई रंग भी नहीं है इस होली में
कोई दिया भी नहीं लहरा रहा है
इस दीवाली में कोई कोलाहल भी नहीं है
इस दशहरे में कोई उल्लास भी नहीं
इस चांदनी में
बस अमावस है
अमावस की विरासत जो जाते-जाते थमाया था
उसे संभाले भटक रहा हूं
तुमको मुबारक हो तुम्हारी चांदनी.

रविवार, 17 अगस्त 2008

उजाले की खोज

उजाले की खोज मे
अन्धकार के पहाड़ के नीचे दब गया हूं
नव ज्योति की तलाश में
जहां सिर्फ अंधेरा सिर्फ अंधेरा

नहीं दिखता पर सुनता हूं
दम तोड़ते नन्हे बच्चों की आवाजें
बमबारी, हत्यायें, सिसकिया

अरोपों प्रत्यारोपों का दौर
प्रगति के आंकड़े
और कभी किसी का गाढ़ा खून
लिपट जाता है पैरों में

मेरे खिलाफ के महाभियोग भी गूंजता है
मैने उजाला देखा है
पर सच-सच कहता हूं,
नही उजाला मैने देखा
इस वियावान में,गहन अंध में
भला उजाला किसे दिखेगा

अब अंध तभी मिट सकता है जब
सब आखें रक्तिम सूरज हो जाये

तुम्हे आवाज देता हूँ

जब कभी मुझसे टकराता आकर
कोई झोंका सर्द पवन का ,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं।

घूमता हूं,बेमकसद
पेड़ो की झुरमुटों/बागों की सनसनाहट बीच,
भागता हूं दूर-दूर,
शोर और भीड़ भरे चौराहों से/
जब कोई मुर्गा देता है बांक अलस्सुबह,
और कलरव पक्षियों का गूंजता है,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं/

जानता हूं नही सुनता,
मेरी भी आवाज कोई ,
लाखों चीखों-कराहटों के बीच
पर मुझे संतोष होता है,
एक बार भी जब तुमको पुकार लेता हूं।

लुहार के घन प्रहार सी,
दीवार घड़ी की टिक -टिक झन्ना देती है मेरे दिमाग को
जब कोई लावारिस बबूल का काटा,
भेदता है मेरे तलुए को ,
दर्द से तिलमिला मैं फिर
तुम्हें आवाज देता हं।

खामोशी

मेरे मीत,
रात का गहन अंधकार,
रच बस गया है मेरे भीतर,
चांद, तारे, सूर्य,रोशनी, प्रकाश ,
अपने लिए,
महज निरर्थक शब्द बनकर रह गये हैं.

जाने कितने युग से,
ठहरी है मेरी जिंदगी,
एक ऐसे अज्ञात, गैर जरूरी कोने में,
फिट हो गया हूं
जहां से कोई गुजरता भी नहीं,
ऐसा विराट अंध सागर है,इर्द-गिर्द
कुछ देख भी नहीं पाता
हां चट्टानों से टकराती लहरों की धुन
और बहुत कुछ सिर्फ सुन सकता हूं.

और अपने कानों से बहुत कुछ,
आंक सकता हूं,
आंशकाये जता सकता हूँ
सपने बुन सकता हूं
पर सब कुछ जानने के बाद भी
खामोशी मेरी विवशता है,
मैं कैद क्यो हों
मेरा गुनाह क्या है?

भूख

भूख से जो,
तिलमिला आगे गये
गोलियों से पुलिस की दागे गये,

दोस्तों यह सल्तनत
किस काम की
हक अगर मांगे तो हम
बांधे गये,

आंकड़ों में
·ितने माहिर लोग हैं,
मर गये सौ
किंतु दस आंके गये,

वक्त की यह भी बुलंदी
देख ली,
अंजुरियों में
जलधि जब नापे गये,

सहयोग

राहों पर बोये गए, जितने भी कांटे

जितने भी रोड़े
बिखेरे गये हैं,
जितने भी शीशे यहां
तोड़ें गए हैं।
सबको हम फेंक राह
सुथरी बना दें
पीछे न देखें मुड़
दिन हो या रातें


मोड़े हम सागर भी
रास्ते में जो पड़े
तोड़े हम पर्वत भी
व्यवधान जो करे।

रेगिस्तान पहुंच हम
रेतों को फेंक दे
वृक्षों की पक्ति सजा
बारिस हम रोक लें
सबके दुख एक साथ मिलकर हम बाटें


राहों पर बोये गए, जितने भी कांटे
आओ हम एक साथ, मिलकर काटें।

आजादी

कितने किले बने-बुर्ज ढ़हे
उजड़ी झोपडिय़ां कितनी ,
मुठभेड़ कितनी हुयी
खालिस निदोर्षो की
इन सब पर बातचीत
करना अपराध है,
होता हो कुछ भी पर देश तो आजाद है।

खादी छलावा बनी
योजनायें राग
जिस बस्ती ने रोटी मांगी
छोड़ दिया नाग
टूटी है काया कितनी
कितने बलात्कार
इन सब पर बातचीत करना अपराध है।
होता हो कुछ भी पर देश तो आजाद है।

सेवा बनी रोजगार
जिस्मों का व्यापार
कितने बेजुबानों की
होती हत्यायें है
आंकडे न मांगिए
उगलियां उठाइए न किसी भी हत्यारे पर
यह सब अपराध है
होता तो कुछ भी पर देश तो आजाद है।
यह कभी न भूलिए, देश तो आजाद है।

बदलाव

आकाश,जब रक्तप्लावित होता है,
पक्षियां अपने बसेरे की ओर
कूच करती है
फाइलें चुपचाप
सेफों में सरक जाती हैं।
मेजों पर रखे चश्में
और
कुरसियों पर टगे कोट
'गायब हो जाते है।

मयखाने
'सफेद-काले ठहाको से
मुखर हो जाते है।
मजदूरों की झुग्गियों से
जब धुआं उठने लगता है
शहर की हलचली शाम
हंसी-चीख और पुकार
जब मिश्रित कर देती है।


गांवों में सन्नाटा जब
गहराता है और
सोया हुआ शहर जब
जगने को होता है
मैं तब भी उदास होता हूं
लेकिन मेरी कल और आज की
उदासी में,
एक गहन अंतराल और
'तब्दीली रहती है/जाने क्यों।

जागीर

तुम चले गए
सब बदल गया है।
बहुत हो गयी फीकी किरने
बड़ी सुनहरी दिखती थीं जो
हरा-भरा मन मुरझाया है

बागो से गाती कोयल भी
लगता जैसे रूदाली है
खिले हुए फूल
लगे मुरझाने
कोपल गायब
बदल गया सब
उलझ गया सब
क्यों आये थे
चले गए क्यों चुपके से तुम

चले गए तो पता चला
कितना खोया
चले गए तो पता चला
तुम क्या थे
चले गए तुम नाम मेरे लिख
पीड़ा की जागीर.

गजल

कौन कांटे बो रहा है
इस शहर में,
कौन आकर रो रहा है
इस शहर में

गांव से झुंड आते
हर घड़ी पर,
क्या कोई जलसा बड़ा है
इस शहर में/

अमृत सा बंट रहा है
विष यहां पर
जहर की लाइन लगी क्यों
इस शहर में

एक दिन वदीं पहन आया कोई पिस्तौलवाला
देखते सब रोज तबसे
नयी अर्थी इस शहर में/

अनाज के पहाड़ पर भूखों के ढेर
लेटे यहां आकाश तले,
आदमी हैवान होता जा रहा है
इस शहर में/

बंजर धरती में आशा के बीज

गली-गली में खोजा
कली-कली में खोजा,
शायद 'आकृति कहीं
छिपी हो खोहों में
ढूंढ़-ढूंढ़ हार गया
नदी के आर- पार गया
नहीं नही दिखी तुम
ऐसी क्यो हुई गुम?

कंटकों से उलझती हुई
जिंदगी स्क्ताती गयी
आंगन- पिछवाड़े सब
डंसते रहे नाग से
आज भी भोर जगा
सूरज की खोज में
दीप्ति बुझी- क्षीण मिली
ढूंढता यूं रोज उसे

आशा के कुछ दीप जले
सूनी फिर हुयी गली
रोज-रोज यही दृश्य
जिंदगी है छली-छली
खुल गयी नाव
टकराती लहरें

धूप और छांव
धुंध भरा वातावरण
नजर नहीं आता गांव
शाम है-रात होगी
फिर सुनहली प्रात: होगी
रात भर जागे बटोही
सुबह कैसे जगेगें
दूर जब करना सफर तय /भला कैसे तय करेंगे


शीत खाई मुरझाई पीतवर्ण सी
जीवन वाटिका
बरसात हुये बरसों बीते
कांतिहीन पत्ते
बिखर गये हैं धरा पर

कैसे बटोरें हम
आशा के पीत पर्ण
और दे लगा आग
डर है,बिखरे न हवा में चिंगारी
जल जाए बची-खुची फुनगियां भी
बिलख उठे बचा-खुचा बाग।

कई उतार चढ़ाव के बीच
आखिर तय ही कर लिया है
लहरों को चीरूंगा
खोजूंगा ठांव
आज नहीं तो कल
मिलेगी ही धरती

बोएगें आशा के बीज
ऊसर में,बंजर में
लहराएगें हरियाली
बरसों से पर्ती
पानी बिन तड़पती जो
देखना लहराएगा कल यहीं
हरा -भरा खेत

दीप टिमटिमाते रहो

टिमटिमाते रहो दीप
इस विराट अंधसागर में
कहीं प्रकाश अस्तित्वहीन न हो जाये

एकाकी
पवन के थपेडो़ के बीच
लहराना
फहराना ही तो
तुम्हारा असली जीवन संघर्ष है

टिमटिमाते रहो
ओ प्रकाश के असली प्रतिनिधि
टिमटिमाते रहो
उजाला कायम रहेगा
तुम्हारे टिमटिमाने तक .

आम आदमी

दिशायें स्थिर हैं
और हवायें थक कर चूर
सूरज का आतंक
कांच की मानिंद बिखरकर चुभ रहा है
बांटा जा रहा है अंगारा
हर आम आदमी / हर गांव को

पक्षियों की मधुर आवाज़ की जगह
आज रूदन-क्रंदन सुन रहा
भाड़ में चने सा भुनता और उछलता
दिख रहा है कातर आम आदमी
इतना जर्जर-थका नज़र आ रहा है वह
चीख की परंपरा निबाहना भी भूल गया है
और कुछ लोग
जो समग्र वातायन से परिचित है
वे जाने क्यों चुप हैं
जाने क्यों मौन साध गए हैं उनके होठ
जाने कभी खुलेंगे भी
और जाने कब बंद होगा अंगारों का बंटवारा

और वे चीखना भी भूल गए हैं
वे जानते हैं
उनकी हुंकार से
धरा क्या गगन भी प्रकम्पित हो सकता है
भुचाल भी आ सकता है
मगर वे मान गए हैं
उनका चीखना बेकार है, क्योंकि
'आज खास आदमी के पास आम आदमी की
पुकार सुनने का वक्त नही है

और आम आदमी की जिंदगी
आम समस्याओं का हल खोजती
व्यस्त और त्रस्त है

अज्ञात पीड़ा

कंपकपाते सर्द मौसम की तरह
मेरी भीतर का कोई अज्ञात भय
डगमगा देता है
मेरी समुची देह

और विषबुझी हवाओं से आती कोलाहल धुन
छोड़ जाती है एक रिक्त उदासी
ताल के किनारे
रेत के धरौदें बनाते है बच्चे
ख्यालों के अम्बर में
भटकता है एक आदमी
चीलें मछलियां झपटती है और
समग्र परिवेश
एक कैनवास पर उठाकर धर देना चाहता है
एक चित्रकार।

तार-तार होती धोती को
बार-बार पैबद लगाकर
सिलती है एक बेसहारा बेवा
बाढ़-बारिस और तूफान से रातों-रात
विकल्प तलाश लेते है लोग
आसमान के सिर पर चढ़कर
चांद से भी बतियाता है/एक अदना सा आदमी
मगर मेरे भीतर का अज्ञात भय
कभी निकलता क्यों नहीं,

कभी रूकती नहीं हलचलें।
और अविराम खोखला करती है, मेरे अंत: को
एक अज्ञात पीड़ा।

मैं तुम्हें आवाज देता हूं

जब कभी मुझसे टकराता आकर
कोई झोंका सर्द पवन का
मैं तुम्हें आवाज देता हूं।

घूमता हूं,बेमकसद
पेड़ो की झुरमुटों/बागों की सनसनाहट बीच,
भागता हूं दूर-दूर,
शोर और भीड़ भरे चौराहों से/
जब कोई मुर्गा देता है बांक अलस्सुबह,
और कलरव पक्षियों का गूंजता है,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं/

जानता हूं नही सुनता,
मेरी भी आवाज कोई ,
लाखों चीखों-कराहटों के बीच
पर मुझे संतोष होता है,
एक बार भी जब तुमको पुकार लेता हूं।


लुहार के घन प्रहार सी,
दीवार घड़ी की टिक -टिक
झन्ना देती है मेरे दिमाग को
जब कोई लावारिस बबूल का काटा,
भेदता है मेरे तलुए को ,
दर्द से तिलमिला मैं फिर
तुम्हें आवाज देता हं।

शहर

अपने चारों ओर
सिर्फ कुहासा
धुंध से लिपटा शहर देखता हूं
चीथड़ो में लिपटा कर फेंके
किसी अवैध बच्चे की तरह
अस्पताल के हर वार्ड से
गूंजती हैं कई दर्दनाक चीखें

रेल गुजरती है
रात के भयावह सन्नाटे को चीरते
बेफिक्र
जंगलो से पहाड़ो से
रेगिस्तान से
और दरिया पार करते
सीटियां बजाती
गाढा़-काला धुंआ फेंकती
समूचे शहर में
दहशत फैलाती हैं.

मुझे लगता है
इस लंबी रेल में बैठा
भयाक्रांत है हर मुसाफिर
जाने क्यो भागते-भागते
पहुंच जाना चाहता है
अपनी मंजिल पर
जाने क्यों
मेरी तरह उन्हें भी
खौफनाक सा लगता है
यह शहर.

हिम्मत

बादलों की ओट से झांकता है चांद
टिमटिमाते हैं तारे
रात का साया आकर
जाने लगता है धरती से

फिर से सक्रिय हो जाते हैं श्रमिक हाथ
शोर-शराबा भर जाती है मोटरें
हिलने लगती हैं रेल की पटरियां
और उसके पडोसी मकान
धुऐं निगरानी करने लगते हैं
फिर से शहर की
फिर से तेज हो जाते हैं
आदमी के ठहरे पांव

अपने बिछावन झाड़ता है
कोई भिखारी
डैने फडफ़ड़ाती है बया

गिरगिट से बदलते परिवेश में
लगता है मैं ठहरा हूं
नहीं आगे बढ़ रही है
मेरी जिंदगी
इधर-उधर नहीं उड़ती मेरी जिंदगी
एक नीरस सा ठहराव है
विरासत है मेरे पास अंधे मोड़ की

अपनी मंजिलें तय करते
बढ़ रहे हैं लोग
जिंदगी की दौड़ में
और जाने कितनी होड़ में
भागते-दौड़ते नजर आ रहे हैं
आ रहे हैं,जा रहे हैं
हंस रहे हैं,गा रहे हैं.

पर मेरे खाते में आखिर
ठहराव ही ठहराव क्यों है
मेरे हिस्से की यह विरासत किसे सौंपूं
आखिर मेरे ठहराव का यह युग
कभी तो बदलेगा.

उथल-पुथल

आकाश -पाताल
एक अदने कैनवास में
कैद कर देने में लगी है
नन्हे चित्रकार की उंगलियां

कन्धों पर भविष्य का
बोझीला बस्ता लादे
अलस्सुबह जाने क्यों
स्कूल जाते हैं बच्चे

जेल से भी ऊंचे
स्कूली अहाते में
छोड़ आती है उन्हे बस
और सांझ को फिर से
उनके मुहल्ले को
वापस लौटा देती है.

टेढ़ी राहों और चौराहों की
भूल भुलैया में
भूलते रहते हैं
मुझ से अनाड़ी पथिक
गलत दिशा बताते हैं
साधु का लबादा ओढ़े कुछ प्रदर्शक

एक नन्ही कोयल की जान से
खेलते हैं तमाम कौवे
कई टुकड़े में बांटता है
एक बच्चे की लाश को हत्यारा
और एक बस्ती थरथरा जाती है
रेल गुजर जाने के बाद.

मैं बूझ नहीं पाता
इस दुनिया का वैचित्र्य
मेरी जिंदगी में क्यों नहीं
क्यों नहीं भरता
कोई आकर मेरे भीतर भी
क्यों नही करता हंगामा
और मचती क्यो नहीं मेरे भीतर भी
उथल पुथल.

चौकसी

बसाए आंख में
सपनो के इंद्रधनु की
हत्या रोज करता हूं
कैसे जिंदा हो जाता प्रात
रात तो रोज मरता हूं

गुजरते भयावह
बियावान जंगल से
निशीथ में भी
भयभीत न होता.
मगर गलियों व सड़कों से
गुजरते रोज डरता हूं.

कौन जाने किस बरस
किस मास किस दिन
क्या हो जाये.
इसलिए अब सफर पर
जब भी निकलता हूं
हर कदम हर मोड़ पर
संभल कर रोज चलता हूं.

शनिवार, 16 अगस्त 2008

ठहराव

अजनबी गलियों से गुजरते हुए
बार-बार पीछे मुड़ कर देखता हूं
हरेक चेहरा खूना लगता है
पानी रक्तिम
और शैवाल
मांस का लोथड़ा

बादलों की ओट से झांकता है चांद
टिमटिमाते हैं तारे
रात का साया आकर
जाने लगता है धरती से

फिर से सक्रिय हो जाते हैं श्रमिक हाथ
शोर-शराबा भर जाती है मोटरें
हिलने लगती हैं रेल की पटरियां
और पडोसी मकान
आज जाते हैं
धुओं की पहरीदारी की परिधि में

फिर से तेज हो जाता है शहर
तेजी से दौडऩे लगते हैं
आदमी के ठहरे पांव
अपने बिछावन झाड़ता है
कोई भिखारी
डैने फडफ़ड़ाती है बया

गिरगिट से बदलते परिवेश में
लगता है मैं ठहरा हूं
नहीं आगे बढ़ रही है
मेरी जिंदगी
इधर-उधर नहीं उड़ती मेरी जिंदगी
एक नीरस सा ठहराव है
विरासत है मेरे पास अंधे मोड़ की

अपनी मंजिलें तय करते
बढ़ रहे हैं लोग
जिंदगी की दौड़ में
और जाने कितनी होड़ में
भागते-दौड़ते नजर आ रहे हैं
आ रहे हैं,जा रहे हैं
हंस रहे हैं,गा रहे हैं.

पर मेरे खाते में आखिर
ठहराव ही ठहराव क्यों है
अपने हिस्से की यह विरासत किसे सौंपूं
आखिर मेरे ठहराव का यह युग कभी तो बदलेगा ?

हलचले

चील सा मंडराता रहता है
दिन में
समूचे शहर का धुंआ
मेरे चारो ओर,
जिसके बीच
सतत घुटता हूं

और रात
कब्रिस्तान से अपने प्रियजन को दफना कर
घर वापस लौटते
परिवार सी
बेहद बेचैनी में बीतती है

·िसी दंगाग्रस्त शहर सी
उथल-पुथल होती है
मेरे भीतर
हलचलें आक्रांत करती हैं

साँझ को खदानों से घर वापस लौटे
थके हारे मजूर सी
बेहद थकान उतर जाती है
मेरे जेहन में

अनंत अनुत्तरित सवालों के पिंड
मेरे इर्द-गिर्द
नक्षत्रों की तरह घूमते हैं
और दिन भर
गिट्टियां तोडऩे के बाद
घर लौटी उखड़ती सांसोवाली
बूढे मजूर की तरह
निढ़ाल होकर
पसर जाता हूं
बिस्तरे पर.

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

अंध महासागर

अट्टहास करता एक दिन,
जरूर अपना मौन तोड़ेगा आकाश,
आंधिया बुझा देंगी,
नश्लवादी दीप,
बाहर झांकेगे,
सागर की अतल गहराइयों में छिपे मोती,

फिर से मांसल होगी,
हरखू की दीमक लगी हड्डियां,
और धनियां की आंखों में,
फिर से हरी-भरी
खुशहाली नाचेंगी,

फिर से अठखेलियां खेलेगी सूखी नदी,
लहरायेंगे ताल -पोखरे,
पर भरीसा क्यों नहीं होता,
मेरे बिछड़े हुए मीत,
तुम कभी लौटकर आओगे?

फिर भी जानें क्यों,
टकटकी लगाये मैं
खोजता रहता हूं हर छाया-प्रच्छाया में,
अपने साथ तुम्हारी,खोई हुई आकृति

बेभरोसे का यह भरोसा,
मेरी रोशनी खो रहा है,
और डुबो रहा है,
अंधमहासागर में।

हत्यारा सूरज

उजला हत्यारा सूरज
सांझ को ढ़ेरों लहू बिखेर
झाड़ झंखाड़ो में खुद का तन छिपाता,
एकाएक खो जाता है
समंदर की अतल गहराइयों में

छटपटाहट और चीखें
दबाने के लिए झींगुर छेड़ देते हैं अपना राग
पक्षी, मुंह मांगी मुरादें पाकर
मौन साध जाते हैं,

रात-रातों-रात
सारा खून साफकर
शिनाख्त मिटा
सुबह फिर पेश करती है
अपने बहुत 'पाक -साफ सूरज को

फिर भी कानो -कान
फैल ही जाती है सच्चाई
जिसे विपक्षी अफवाहें और
उजाला धूमिल क रने का
कुचक्र बताता
उलटे आग बबूला हो जाता है सूरज


पक्षी मधुर आवाज में
राग सुनाने लगते है,
नारे लगाते हैं और निरीह जानवर
और जयकारा से गूँज जाता है सारा जंगल

लेकिन चकाचौध उजाला बिखेर देने के बाद
अनुभवी चोरों की तरह
शहर की बिजली काट
लंबा गोल माल कर
फिर से गोल हो जाता है सूरज

और रात फिर अपने सूरज को
अपने आंचल में छिपा
काली शाल फेंकती है
धरती पर
ताकि सब सो जाये

मगर इधर
जब से चौ·न्ना रहने लगा है
आदमी
निगहबानी करने लगी है दिशाऐं
सूरज डरने लगा है
बेनकाब होने से

और रात भी
आशंकित रहने लगी है
अपने फरेब की
नाकामयाबी पर
आखिर कब तक अपनी काली शाल के सहारे
वह भी बचा पाऐगी
अपने सूरज को
कब तक ?

नियति

खुबसूरत चकाचौंध में
अपनी आखों की रोशनी
खो बैठा हूं मैं,
खुद ही तो उजाड़ दिये हैं
अपने सब्जबाग
6 दिसंबर की मानिंद ढहा दिया है अपना घर
और बिखेर दी है सारी ईंटें
मैने तो आग भी दे दी है
तुम्हारे घरौदे को भी

बौना अस्तित्व मैं अपना
दसलखिया शहर की एक गली को
सौंप उसी भीड़ में शामिल हो गया हूं-
जो कतरा- कतरा रोशनी में
जमहाई ले रही है।
इस शहर मे फंदे पर टांग दिया गया है मेरा आत्मविश्वास
लाखों जिन्दा लोशों को कंधे पर लादे रहे इस शहर में
मै भी खूब दौड़ रहा हूं
चलता जा रहा हूं
मेरी चाहत के दावेदार भी जाने क्यों
मुझे दफनाने की गुहार भी नहीं सुनते

कोई सुनेगा भी क्यों
सब अपनी लाश ढोने में ही व्यस्त हैं.
मैं जानता हूं/ मेरी चलती-फिरती लाश
जब सचमुच ठहर जायेगी
तो भी कोई दफनायेगा नहीं.
कोई पास भी नहीं फटकेगा
सिवा मेरे खिड़की के पास बैठे उस बाज के
जो आधी रात को भी बड़े प्यार से
निहारता रहता है मुझे

मेरा एकलौता हमदर्द है वह बाज
वह मेरी हडिड्यां और मैं उसे देख काट लेते है रात/
वह कु छ सोचता हो पर कम से कम
रोज दर्द तो बांटता है मेरे साथ।

पिघलता पहाड़

रातो -रात
तेरी ऊष्मा से
जाने कैसे पिघल गयी
मेरी जिंदगी की बरफ

मुझे पहाड़ ही रहने दिया होता
किसने कहा था?
ऊष्मा देकर
सोख लो
मेरे भीतर का पहाड़
और खुद में समाहित कर लो
मेरे भीतर की बरफ

मेरी बरफ
जमी ही रहती
तो धीरे-धीरे
पिघल कर
कुछ फायदा भी करती
पर अचानक् बढियायी नदी की मानिंद
सारी बर्फ पिघलाना
किसका भला हुआ?

जीवन दर्शन

सांझ के धुधलके में
जब कहीं खो जाते हैं तुम्हारे हाथ
विलुप्त हो जाती है तुम्हारी काया
तो भी मेरे कानो को
भेदती रहती है
दिन भर का तुम्हारा घन प्रहार

तुम फरियाद नही करते
किसी से रोते नहीं हो
तुम खुश भी नहीं
तुम्हारे आसपास फैला है
दुख का ऊंचा पहाड़
तो भी तुम्हारे चेहरे को बदल नहीं पाता है दुख
तुम तनाव नहीं पालते
तुम्हारी झोपडिय़ो का आकार भी नहीं बढ़ता
परिवार बढऩे के साथ
तुम्हारी जेब भी नहीं बढ़ती
काम कम बोझ बढऩे के साथ

बया,तुम्हारे नन्हे घरौंदे में ही
अपना भी घरौंदा बना लेती है
तुम उजाड़ते भी नहीं हो
तुम्हे पता है किसने भेजी लपटें
किसने उजाड़ी झोपड़ी
पर तुम इसे नियति का फेर मानते हो
तुम पानी लाने नहीं
बया के बच्चो को बचाने दौड़ते हो

भूख
तुम्हारे चेहरो पर लकीर नहीं बना पाती
शीतलहरी भी नहीं कंपा पाती
तुम्हारी नंगी काया
कोई ज्योतिषी
और मंदिर-मस्जिद
बदल नहीं पाते
तुम्हारे हाथ की लकीरों को
मगर तुमको गिला नहीं.

थोड़ा मंत्र मुझे भी दे दो
और बता दो
धैर्य का यह तुम्हारा जीवन दर्शन
क्या है
कैसे जिंदा रहते हो तुम ?

इंतजार ख़त्म होने का इंतजार

इंतजार

खूंखार जमींदार के आतंक की तरह
इलाके को कंपाती
रेलगाड़ी गुजरती है
सन्नाटे को चीरती
पूरा गांव दहशत से कानपता है
सर्द पहाड़ की बर्फीली
तूफानी रात की तरह

मां,एक मां
मैली कुचैली पैबंद लगी धोती में
अधपेट
बरसों परदेश गए
अपने अबोध शिशु को
हर गाड़ी में आता महसूसती है
हर डाकिया
उसी का संदेश लाता है
सपने में

उसकी आंखो में है
असीमित प्यार
ममता का महासागर
समाया है उसके भीतर
अगणित शोषण के थपेड़े
उस·े गालों पर पड़ी झुर्रियां
गवाह है,उसके धैर्य
उसकी सहनशीलता की

पर जाने क्यों सब कुछ सहते
अभी भी इंतजार है उसे
इंतजार है
कोपलें फूटेगी, इंतजार ख़त्म होगा ..

शहर

शहर

अपने चारों ओर
सिर्फ कुहासा
धुंध से लिपटा शहर देखता हूं
चीथड़ो में लिपटा कर फेंके
किसी अवैध बच्चे की तरह
अस्पताल के हर वार्ड से
गूंजती हैं कई दर्दनाक चीखें

रेल गुजरती है
रात के भयावह सन्नाटे को चीरते
बेफिकर
जंगलो से पहाड़ो से
रेगिस्तान से
और दरिया पार करते .
सीटियां बजाती
गाढा़-काला धुंआ फेंकती
समूचे शहर में
दहशत फैलाती हैं.

मुझे लगता है
इस लंबी रेल में बैठा
भयाक्रांत है हर मुसाफिर
जाने क्यो भागते-भागते
पहुंच जाना चाहता है
अपनी मंजिल पर
जाने क्यों
मेरी तरह उन्हें भी
खौफनाक सा लगता है
यह शहर.

विश्राम चाहता हूं

विश्राम चाहता हूं

पहचान नही पाता
पास के चेहरों को
चटख चांदनी
और सूरज की रोशनी में भी
लगातार चौकन्ना रहने से
कानो की शक्ति क्षीण हो गयी है
बहरापन महसूसता हूं

आंखे तीक्ष्ण प्रकाश में
लगातार देखते-देखते
ज्योति गंवा बैंठी हैं
और हाथ लगातार
सिर का बोझ थामे
शक्तिहीन हो गए हैं

पांव चलते चलते
लहूलुहान
थक गए हैं अब
कोई छेडो़ न मुझे
विश्राम चाहता हूं
मुझे छोड़ दो
अकेले
अपने हाल पर।

आदमी और पतझड़

आदमी और पतझड़
अरविन्द कुमार सिंह
पतझड़ के पत्तो की तरह
बिखरता है आदमी
तेज बर्फीले थपेड़े चलाती है हवा
दूर उड़ा देने के लिए.

तपती रेत में
खूब तेज दौड़ लगाते हैं
नंगे नन्हे पांव
अथाह सागर को चीरते
युद्दपोत की तरह.

कितनी प्यारी लगती है
भोर की वायु,
कितना अच्छा लगता है
पक्षियों का चहचहाना
और कितना विकृत लगता है
सुबह जगे हुए
आदमी का चेहरा

तनावों का अकूत बोझा लादे
जाने कितनी रात
वह सोता है
नींद की गोलियां निगल
तनाव मिटाने के उपक्रम में लगा
प्रात जगते ही
दुगुनी चिंताऐं आ घेरती हैं उसे

प्रात बेहद लाल हो जाता है सूरज
बेहद परेशान हो जाता है आकाश
बेहद खिन्न हो जाती है धरती
रात की शांति के बाद
आदमी कुरेदने लगता है
फिर से धरती के हरे घाव

6 दिसंबर

6 दिसंबर
अरविन्द कुमार सिंह
और अचानक कहीं खो गयी
सदियों से खामोश खड़ी एक इमारत
हजारों लोग लगे हैं
एक अनूठी कारसेवा में
ऐसी कारसेवा
जो शायद पहली और आखिरी है

पूरी दुनिया में नाहक सरनाम हो गयी
इस बूढ़ी इमारत ने
भला इनका क्या बिगाड़ा था
जो फावड़े-कुदाल
इसे उजाड़ रहे हैं.

आखिर किस
सियासत ने
मजहब का नकाब ओढ़
इंसानियत के घर
आग लगायी है

किसी की मस्जिद कब गिरी
किसी का मंदिर कहां गिरा है?
यहां तो गिरी है
सिर्फ विश्वास की ऊंची मीनारें
यहां तो खामोश हुई हैं
मानवता
एक ध्वंस से जाने कितने
सुनहरे सपनो की
बुनियाद हिली है

ये नया इतिहास रचनेवालों
एक भी ईंट नहीं छोडऩा
इस धरती पर

अपने साथ ही ले जाना इन मलबों को
अपने गुनाहों को ढंक कर
पुण्य कमा लेना
अपनी देहरी पर पहुंच कर
बहादुरी के किस्से बघारना
और इन लाखोरी ईंटो का स्मारक बनवा लेना
इसी से
मोक्ष मिलेगा तुमको ।
(७ दिसम्बर १९९२, अयोध्या )

बुधवार, 13 अगस्त 2008

नए साल के नाम .....


कविता-अरविन्द कुमार सिंह

सभी पूर्ववत
नहीं नया कुछ लगता मुझको
चार दिशाऐं चौकोने पर
पहले जैसी डटी हुई हैं
सारे पादप वहीं खड़े हैं
सारे चौराहे वैसे हैं.

मान रहा कुछ ठंड बढ़ा है
खेतों-खलिहानो-गांवों में
कल से कुछ गहरा कोहरा है
पर सूरज की िकरणों में
न गरमाहट
नहीं नया पन
पक्षी के कलरव में भी
कोई नवगीत नहीं सुनता हूं
सूखे डालें वही पेड़ की
नहीं नया कुछ दिखता मुझको
फिर कैसा अभिनंदन का सुर
गूंज रहा है
नया साल क्या?

2

जिस क्षण सोता विश्व समूचा होता है
कैलेंडर फडफ़ड़ा निकलती
रोज नयी तारीख
बनता रोज नया दिन
ऐसा ही कुछ बदला लगता
करनी आज भी वही कल सम
मुझे पेट की चिंता
व्यवस्था अपने तन की
नियति हो गयी
रोज ·माना खाना जो.

गलियां कूचे सड़क आदमी
मीनारें मेंहराबें दूकानें
नगर समूचा कल जैसा ही
नहीं नया कुछ बदला लगता
हां ,गलियों में फिकरे करते
बच्चे कुछ उम्रदार हो
नए साल की यही विरासत
एक साल की उम्र बढ़ गयी
नए साल की यही विरासत
वही करेली लिपट रही थी
नीम पेड़ के चारों ओर
आज चढ़ गयी
ऊंची डालों पर
नए साल की खबरें पाकर
एकाकी जीवन को ढ़ोते उस बूढ़े अनाथ की
आंखे कुछ धस गयी हैं
और झुर्रियां
गालों की गहरायी है...

3
इश्तहार ये खुशहाली के
प्रगति के या स्वर्णकाल के
शासक प्रशस्ति के
मंदिर-मस्जिद के झगड़ो के
मंडल और कमंडल के
चौराहों पर हर कोनों पर
चिपक रहे जो
नया नहीं है
और पर्चियां कुछ आमंत्रण
कुछ हाथों में वितरित होते
नया नहीं है
भीतर िकतनी ज्वाला ,िकतनी हलचल है
उन्हें पता है
जो मन की सारी खुशियां समेट कर
मुसकाते दिखते बांटते मुबारकबाद.

4
नया साल ये नव दिन तो है महलों का
झुग्गी झोपडिय़ां गांवो में
कुछ भी नया नहीं है

बिजली खंभे दिखते पग-पग
पर अभी अंधेरा गांवो में
नहरों के हैं जाल बिछे पर
सिसके धरती चटकी गांवो में
नही नयापन
धनिया होरी की
वही पुरानी तस्वीर आज भी गांवों में
वही सांझ के ढ़ले आज भी
सन्नाटा है गांवो में
जूते के उद्योग दर्ज हैं
पर फटी बिवाई गांवो में
नहीं नयापन,वही सेठ जागीरदार ·ी
आवाज कड़कती गांवो में
ट्र्ैक्टर भी पर जर्जर सड़के
टूटी लढिया मरियल बैल का बहुमत
अब भी गांवो में

वही उमंगे,वही पुरानी
मरणासन्न वही हैं
वही खाट टूटी सी
फटी रजाई चिथड़ा चद्दर
तार-तार मन,खंड-खंड तन
सारी आशाऐं हैं बंजर
बूढ़ी आंखो में कल के ही
मृत सपने हैं.

5

रद्दीवाले,सब्जीवाले,पालिशवाले,चरवाहे या
छोटे हाथों की
गलियों मे गूँज रही बच्चों की आवाजें
नयी नहीं हैं
सुबह आयी थमा गयी
जूठी प्लेटें और गिलास
यह भी नया नहीं है
ट्रेन गुजरती,गांव काँपता ,नया नही है
दंगा होता,नेता िचतित नया नही है
दंगा होता नेता शामिल नया नही है
मंदिर मस्जिद झगड़ रहे हैं,नया नही है.
गुडग़ांव में गोली बर्षा नया नही है.

आरोपों प्रत्यारोपों में नही नयापन
आघातों-प्रत्याघातों में नहीं नयापन
इन बातों में उन बातों में नही नयापन

6
बिखरे ढ़ेर िकताबों के है
वही बोझ है
कुछ बदला गर दिखता मुझको तो
सिर्फ बदलते वक्तव्य रोज हैं
·लम वही है,सूख गयी कुछ
मेज वही है बिखरे कागज़
हलचल मन में वही पुरानी
पहले जैसी

सब कुछ पहले सा है तो फि र
यह अभिनंदन है किसका
किसका स्वागत,नया साल क्या ?

नया साल क्या,वही पुरानी
खोई सी तारीख
घिसा पिटा सा दिन
सदियो से जो एक चक्र में
रोज घूमता
आता जाता है.