मंगलवार, 19 अगस्त 2008

एशियाड-82 के नाम दो कविता

-1-

देश के उजले परिवेश (एशियाड)में
चीथड़े फिट नहीं होंगे
इसलिए अच्छी सोच है यह
भिखारियों की जमात
राजधानी से हटा दी जाये

नंगे भूखे देश पर लिहाफ है एशियाड
क्यांकि विदेशी मेहमानो के सामने
खूबसूरत संसद के वासिंदे
सुनहले फ्रेमवाले चश्मों से देश को देख रहे नौकरशाह
कैसे सहन करेंगे ,
प्रतिष्ठा का सवाल है

कैसे सहन करेंगे fक बस्तियों की वीरानगी का प्रतीक
खेल का मैदान
जिसमें भूखे देश के कंकाल का रिसता रक्त लगा हो
वह अपमानित हो।

-2-

कोई बात नहीं दोस्त
हम यह खेल नहीं देख पाऐंगे
वह खेल ही क्या कम था
जब चक्रवातों से भी बेरहमी के साथ
इंसानो ने ही उजाड़ दिया था हमें

बिखरे उपादान समेट हम
अपने ही देश में दरबदर
जो खेल देख रहे हैं,वह छोटा तो नहीं ।

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