गुरुवार, 14 अगस्त 2008

नियति

खुबसूरत चकाचौंध में
अपनी आखों की रोशनी
खो बैठा हूं मैं,
खुद ही तो उजाड़ दिये हैं
अपने सब्जबाग
6 दिसंबर की मानिंद ढहा दिया है अपना घर
और बिखेर दी है सारी ईंटें
मैने तो आग भी दे दी है
तुम्हारे घरौदे को भी

बौना अस्तित्व मैं अपना
दसलखिया शहर की एक गली को
सौंप उसी भीड़ में शामिल हो गया हूं-
जो कतरा- कतरा रोशनी में
जमहाई ले रही है।
इस शहर मे फंदे पर टांग दिया गया है मेरा आत्मविश्वास
लाखों जिन्दा लोशों को कंधे पर लादे रहे इस शहर में
मै भी खूब दौड़ रहा हूं
चलता जा रहा हूं
मेरी चाहत के दावेदार भी जाने क्यों
मुझे दफनाने की गुहार भी नहीं सुनते

कोई सुनेगा भी क्यों
सब अपनी लाश ढोने में ही व्यस्त हैं.
मैं जानता हूं/ मेरी चलती-फिरती लाश
जब सचमुच ठहर जायेगी
तो भी कोई दफनायेगा नहीं.
कोई पास भी नहीं फटकेगा
सिवा मेरे खिड़की के पास बैठे उस बाज के
जो आधी रात को भी बड़े प्यार से
निहारता रहता है मुझे

मेरा एकलौता हमदर्द है वह बाज
वह मेरी हडिड्यां और मैं उसे देख काट लेते है रात/
वह कु छ सोचता हो पर कम से कम
रोज दर्द तो बांटता है मेरे साथ।

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