गुरुवार, 14 अगस्त 2008

6 दिसंबर

6 दिसंबर
अरविन्द कुमार सिंह
और अचानक कहीं खो गयी
सदियों से खामोश खड़ी एक इमारत
हजारों लोग लगे हैं
एक अनूठी कारसेवा में
ऐसी कारसेवा
जो शायद पहली और आखिरी है

पूरी दुनिया में नाहक सरनाम हो गयी
इस बूढ़ी इमारत ने
भला इनका क्या बिगाड़ा था
जो फावड़े-कुदाल
इसे उजाड़ रहे हैं.

आखिर किस
सियासत ने
मजहब का नकाब ओढ़
इंसानियत के घर
आग लगायी है

किसी की मस्जिद कब गिरी
किसी का मंदिर कहां गिरा है?
यहां तो गिरी है
सिर्फ विश्वास की ऊंची मीनारें
यहां तो खामोश हुई हैं
मानवता
एक ध्वंस से जाने कितने
सुनहरे सपनो की
बुनियाद हिली है

ये नया इतिहास रचनेवालों
एक भी ईंट नहीं छोडऩा
इस धरती पर

अपने साथ ही ले जाना इन मलबों को
अपने गुनाहों को ढंक कर
पुण्य कमा लेना
अपनी देहरी पर पहुंच कर
बहादुरी के किस्से बघारना
और इन लाखोरी ईंटो का स्मारक बनवा लेना
इसी से
मोक्ष मिलेगा तुमको ।
(७ दिसम्बर १९९२, अयोध्या )

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