दिशायें स्थिर हैं
और हवायें थक कर चूर
सूरज का आतंक
कांच की मानिंद बिखरकर चुभ रहा है
बांटा जा रहा है अंगारा
हर आम आदमी / हर गांव को
पक्षियों की मधुर आवाज़ की जगह
आज रूदन-क्रंदन सुन रहा
भाड़ में चने सा भुनता और उछलता
दिख रहा है कातर आम आदमी
इतना जर्जर-थका नज़र आ रहा है वह
चीख की परंपरा निबाहना भी भूल गया है
और कुछ लोग
जो समग्र वातायन से परिचित है
वे जाने क्यों चुप हैं
जाने क्यों मौन साध गए हैं उनके होठ
जाने कभी खुलेंगे भी
और जाने कब बंद होगा अंगारों का बंटवारा
और वे चीखना भी भूल गए हैं
वे जानते हैं
उनकी हुंकार से
धरा क्या गगन भी प्रकम्पित हो सकता है
भुचाल भी आ सकता है
मगर वे मान गए हैं
उनका चीखना बेकार है, क्योंकि
'आज खास आदमी के पास आम आदमी की
पुकार सुनने का वक्त नही है
और आम आदमी की जिंदगी
आम समस्याओं का हल खोजती
व्यस्त और त्रस्त है
रविवार, 17 अगस्त 2008
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