रविवार, 17 अगस्त 2008

हिम्मत

बादलों की ओट से झांकता है चांद
टिमटिमाते हैं तारे
रात का साया आकर
जाने लगता है धरती से

फिर से सक्रिय हो जाते हैं श्रमिक हाथ
शोर-शराबा भर जाती है मोटरें
हिलने लगती हैं रेल की पटरियां
और उसके पडोसी मकान
धुऐं निगरानी करने लगते हैं
फिर से शहर की
फिर से तेज हो जाते हैं
आदमी के ठहरे पांव

अपने बिछावन झाड़ता है
कोई भिखारी
डैने फडफ़ड़ाती है बया

गिरगिट से बदलते परिवेश में
लगता है मैं ठहरा हूं
नहीं आगे बढ़ रही है
मेरी जिंदगी
इधर-उधर नहीं उड़ती मेरी जिंदगी
एक नीरस सा ठहराव है
विरासत है मेरे पास अंधे मोड़ की

अपनी मंजिलें तय करते
बढ़ रहे हैं लोग
जिंदगी की दौड़ में
और जाने कितनी होड़ में
भागते-दौड़ते नजर आ रहे हैं
आ रहे हैं,जा रहे हैं
हंस रहे हैं,गा रहे हैं.

पर मेरे खाते में आखिर
ठहराव ही ठहराव क्यों है
मेरे हिस्से की यह विरासत किसे सौंपूं
आखिर मेरे ठहराव का यह युग
कभी तो बदलेगा.

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