उजला हत्यारा सूरज
सांझ को ढ़ेरों लहू बिखेर
झाड़ झंखाड़ो में खुद का तन छिपाता,
एकाएक खो जाता है
समंदर की अतल गहराइयों में
छटपटाहट और चीखें
दबाने के लिए झींगुर छेड़ देते हैं अपना राग
पक्षी, मुंह मांगी मुरादें पाकर
मौन साध जाते हैं,
रात-रातों-रात
सारा खून साफकर
शिनाख्त मिटा
सुबह फिर पेश करती है
अपने बहुत 'पाक -साफ सूरज को
फिर भी कानो -कान
फैल ही जाती है सच्चाई
जिसे विपक्षी अफवाहें और
उजाला धूमिल क रने का
कुचक्र बताता
उलटे आग बबूला हो जाता है सूरज
पक्षी मधुर आवाज में
राग सुनाने लगते है,
नारे लगाते हैं और निरीह जानवर
और जयकारा से गूँज जाता है सारा जंगल
लेकिन चकाचौध उजाला बिखेर देने के बाद
अनुभवी चोरों की तरह
शहर की बिजली काट
लंबा गोल माल कर
फिर से गोल हो जाता है सूरज
और रात फिर अपने सूरज को
अपने आंचल में छिपा
काली शाल फेंकती है
धरती पर
ताकि सब सो जाये
मगर इधर
जब से चौ·न्ना रहने लगा है
आदमी
निगहबानी करने लगी है दिशाऐं
सूरज डरने लगा है
बेनकाब होने से
और रात भी
आशंकित रहने लगी है
अपने फरेब की
नाकामयाबी पर
आखिर कब तक अपनी काली शाल के सहारे
वह भी बचा पाऐगी
अपने सूरज को
कब तक ?
गुरुवार, 14 अगस्त 2008
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