लगी हरी फसलें मुरझाने
क्या हो गया सिवान को
लगता अबकी भी अनाज
न पहुंचेगा खलिहान में
भरे अषाढ़ में बैल मर गया
अब भी कर्जा, रोज तगादा नाको दम है
अभी अमीन या पटवारी नहीं आ रहे यह क्या कम है
बाबू अबकी भी लगता है
पशु प्राणी भूखों मर जाएंगे
पहले बाढ़ और अबकी सूखा
लोग भला क्या खाएंगे
एक ओर से सेठ नोचता
दूजे यह महंगाई
क्या यह सब दिखता है
खून पी रहा भाई भाई
कैसी विपदा आयी मौसमी
बज्र गिर गया सीने पर
सुखई को मैं रोक रहा था
बात मान परदेश न जाता
न दब मरता खान में
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
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