मंगलवार, 19 अगस्त 2008

अकाल

लगी हरी फसलें मुरझाने
क्या हो गया सिवान को
लगता अबकी भी अनाज
न पहुंचेगा खलिहान में

भरे अषाढ़ में बैल मर गया
अब भी कर्जा, रोज तगादा नाको दम है
अभी अमीन या पटवारी नहीं आ रहे यह क्या कम है

बाबू अबकी भी लगता है
पशु प्राणी भूखों मर जाएंगे
पहले बाढ़ और अबकी सूखा
लोग भला क्या खाएंगे

एक ओर से सेठ नोचता
दूजे यह महंगाई
क्या यह सब दिखता है
खून पी रहा भाई भाई

कैसी विपदा आयी मौसमी
बज्र गिर गया सीने पर
सुखई को मैं रोक रहा था
बात मान परदेश न जाता
न दब मरता खान में

कोई टिप्पणी नहीं: