रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन मे
लाख कोशिश की मगर राज समझ न पाया।
कर तेरी याद
रात भर रोया
गिनता तारे रहा
उदासी में नहीं सोया
प्रात सूर्योदय की बात समझ न पाया
दिन गुजरते गए
वर्ष मास बना
कितनी उदासी में मैने
जिंदगी का ख्वाब बुना
कौन रोता है आखिर
मेरे घर के पिछवाड़े हर शाम
लाख निगरानी की मगर आवाज समझ न पाया
थके सूरज ने
शाम को ली अंगड़ाई
रात फिर मेरे आंगन में उतर आयी
सोचता हूँ मिली मुझे
उपलब्धियां-विफलताऐं कितनी
मगर यह बात आज तक समझ न पाया
रात चुपके से उतर आयी मेरे आंगन में।
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें