शनिवार, 16 अगस्त 2008

ठहराव

अजनबी गलियों से गुजरते हुए
बार-बार पीछे मुड़ कर देखता हूं
हरेक चेहरा खूना लगता है
पानी रक्तिम
और शैवाल
मांस का लोथड़ा

बादलों की ओट से झांकता है चांद
टिमटिमाते हैं तारे
रात का साया आकर
जाने लगता है धरती से

फिर से सक्रिय हो जाते हैं श्रमिक हाथ
शोर-शराबा भर जाती है मोटरें
हिलने लगती हैं रेल की पटरियां
और पडोसी मकान
आज जाते हैं
धुओं की पहरीदारी की परिधि में

फिर से तेज हो जाता है शहर
तेजी से दौडऩे लगते हैं
आदमी के ठहरे पांव
अपने बिछावन झाड़ता है
कोई भिखारी
डैने फडफ़ड़ाती है बया

गिरगिट से बदलते परिवेश में
लगता है मैं ठहरा हूं
नहीं आगे बढ़ रही है
मेरी जिंदगी
इधर-उधर नहीं उड़ती मेरी जिंदगी
एक नीरस सा ठहराव है
विरासत है मेरे पास अंधे मोड़ की

अपनी मंजिलें तय करते
बढ़ रहे हैं लोग
जिंदगी की दौड़ में
और जाने कितनी होड़ में
भागते-दौड़ते नजर आ रहे हैं
आ रहे हैं,जा रहे हैं
हंस रहे हैं,गा रहे हैं.

पर मेरे खाते में आखिर
ठहराव ही ठहराव क्यों है
अपने हिस्से की यह विरासत किसे सौंपूं
आखिर मेरे ठहराव का यह युग कभी तो बदलेगा ?

2 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

bahut sunder apne tahraw ka dard biherti kawita. Aise hi badal jayegaye thahraw Ek tej raftar jindagi men.

Udai Singh ने कहा…

कविता बहुत खूबसूरत है
मेरे ख्याल से आप की दी हुई विरासत धीरे धीरे पूरे हिन्दुसतान में फैल रही है इस लिए थोडे ठहराव को जिंदगी का ठहराव नही मान लेना चाहिए