कंपकपाते सर्द मौसम की तरह
मेरी भीतर का कोई अज्ञात भय
डगमगा देता है
मेरी समुची देह
और विषबुझी हवाओं से आती कोलाहल धुन
छोड़ जाती है एक रिक्त उदासी
ताल के किनारे
रेत के धरौदें बनाते है बच्चे
ख्यालों के अम्बर में
भटकता है एक आदमी
चीलें मछलियां झपटती है और
समग्र परिवेश
एक कैनवास पर उठाकर धर देना चाहता है
एक चित्रकार।
तार-तार होती धोती को
बार-बार पैबद लगाकर
सिलती है एक बेसहारा बेवा
बाढ़-बारिस और तूफान से रातों-रात
विकल्प तलाश लेते है लोग
आसमान के सिर पर चढ़कर
चांद से भी बतियाता है/एक अदना सा आदमी
मगर मेरे भीतर का अज्ञात भय
कभी निकलता क्यों नहीं,
कभी रूकती नहीं हलचलें।
और अविराम खोखला करती है, मेरे अंत: को
एक अज्ञात पीड़ा।
रविवार, 17 अगस्त 2008
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