रविवार, 17 अगस्त 2008

अज्ञात पीड़ा

कंपकपाते सर्द मौसम की तरह
मेरी भीतर का कोई अज्ञात भय
डगमगा देता है
मेरी समुची देह

और विषबुझी हवाओं से आती कोलाहल धुन
छोड़ जाती है एक रिक्त उदासी
ताल के किनारे
रेत के धरौदें बनाते है बच्चे
ख्यालों के अम्बर में
भटकता है एक आदमी
चीलें मछलियां झपटती है और
समग्र परिवेश
एक कैनवास पर उठाकर धर देना चाहता है
एक चित्रकार।

तार-तार होती धोती को
बार-बार पैबद लगाकर
सिलती है एक बेसहारा बेवा
बाढ़-बारिस और तूफान से रातों-रात
विकल्प तलाश लेते है लोग
आसमान के सिर पर चढ़कर
चांद से भी बतियाता है/एक अदना सा आदमी
मगर मेरे भीतर का अज्ञात भय
कभी निकलता क्यों नहीं,

कभी रूकती नहीं हलचलें।
और अविराम खोखला करती है, मेरे अंत: को
एक अज्ञात पीड़ा।

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