रविवार, 17 अगस्त 2008

शहर

अपने चारों ओर
सिर्फ कुहासा
धुंध से लिपटा शहर देखता हूं
चीथड़ो में लिपटा कर फेंके
किसी अवैध बच्चे की तरह
अस्पताल के हर वार्ड से
गूंजती हैं कई दर्दनाक चीखें

रेल गुजरती है
रात के भयावह सन्नाटे को चीरते
बेफिक्र
जंगलो से पहाड़ो से
रेगिस्तान से
और दरिया पार करते
सीटियां बजाती
गाढा़-काला धुंआ फेंकती
समूचे शहर में
दहशत फैलाती हैं.

मुझे लगता है
इस लंबी रेल में बैठा
भयाक्रांत है हर मुसाफिर
जाने क्यो भागते-भागते
पहुंच जाना चाहता है
अपनी मंजिल पर
जाने क्यों
मेरी तरह उन्हें भी
खौफनाक सा लगता है
यह शहर.

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