अपने चारों ओर
सिर्फ कुहासा
धुंध से लिपटा शहर देखता हूं
चीथड़ो में लिपटा कर फेंके
किसी अवैध बच्चे की तरह
अस्पताल के हर वार्ड से
गूंजती हैं कई दर्दनाक चीखें
रेल गुजरती है
रात के भयावह सन्नाटे को चीरते
बेफिक्र
जंगलो से पहाड़ो से
रेगिस्तान से
और दरिया पार करते
सीटियां बजाती
गाढा़-काला धुंआ फेंकती
समूचे शहर में
दहशत फैलाती हैं.
मुझे लगता है
इस लंबी रेल में बैठा
भयाक्रांत है हर मुसाफिर
जाने क्यो भागते-भागते
पहुंच जाना चाहता है
अपनी मंजिल पर
जाने क्यों
मेरी तरह उन्हें भी
खौफनाक सा लगता है
यह शहर.
रविवार, 17 अगस्त 2008
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