इस महानगरी में
कुछ भी तो नहीं है मां
एक छलावे के सिवा
चौड़ी सड़को के सीने पर
चौबीसों घंटे दौड़ लगाता है
इस महानगरी का मानव
एक दूसरे को पीछे छोड़ देने की होड़ में
धुंआ उड़ाती मोटरों के साथ
जाने कितने अधजले ख्वाब तैर रहे हैं
यहां की हवाओं में
धुंआ जवानों के भी आसपास मंडराता है
और धुओं में वे अपने गम को छिपाते हैं
यहां के विद्यामंदिरों में
प्रतिभा नहीं
वर्ग और राशि पूछी जाती है
एक छलावा पढ़ते हैं हम
यहां की चमक -दमक के पीछे
जाने कितनी कालिमा है
गगनचुंबी हवेलियों में भी यहां
रहते हैं चंद लोग
और हजारों नंगे भूखे फुटबाथों पर
दिन रात धुआं फेंकती हैं,यहां की चिमनियां
एक -एक मालिक के हजारों मजदूर हैं
उनके स्याह चेहरे पढऩे लायक भी बन पाया हूं मां
फिर और क्या-क्या पढ़ पाऊं गा?
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
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