शनिवार, 16 अगस्त 2008

हलचले

चील सा मंडराता रहता है
दिन में
समूचे शहर का धुंआ
मेरे चारो ओर,
जिसके बीच
सतत घुटता हूं

और रात
कब्रिस्तान से अपने प्रियजन को दफना कर
घर वापस लौटते
परिवार सी
बेहद बेचैनी में बीतती है

·िसी दंगाग्रस्त शहर सी
उथल-पुथल होती है
मेरे भीतर
हलचलें आक्रांत करती हैं

साँझ को खदानों से घर वापस लौटे
थके हारे मजूर सी
बेहद थकान उतर जाती है
मेरे जेहन में

अनंत अनुत्तरित सवालों के पिंड
मेरे इर्द-गिर्द
नक्षत्रों की तरह घूमते हैं
और दिन भर
गिट्टियां तोडऩे के बाद
घर लौटी उखड़ती सांसोवाली
बूढे मजूर की तरह
निढ़ाल होकर
पसर जाता हूं
बिस्तरे पर.

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