गुरुवार, 14 अगस्त 2008

आदमी और पतझड़

आदमी और पतझड़
अरविन्द कुमार सिंह
पतझड़ के पत्तो की तरह
बिखरता है आदमी
तेज बर्फीले थपेड़े चलाती है हवा
दूर उड़ा देने के लिए.

तपती रेत में
खूब तेज दौड़ लगाते हैं
नंगे नन्हे पांव
अथाह सागर को चीरते
युद्दपोत की तरह.

कितनी प्यारी लगती है
भोर की वायु,
कितना अच्छा लगता है
पक्षियों का चहचहाना
और कितना विकृत लगता है
सुबह जगे हुए
आदमी का चेहरा

तनावों का अकूत बोझा लादे
जाने कितनी रात
वह सोता है
नींद की गोलियां निगल
तनाव मिटाने के उपक्रम में लगा
प्रात जगते ही
दुगुनी चिंताऐं आ घेरती हैं उसे

प्रात बेहद लाल हो जाता है सूरज
बेहद परेशान हो जाता है आकाश
बेहद खिन्न हो जाती है धरती
रात की शांति के बाद
आदमी कुरेदने लगता है
फिर से धरती के हरे घाव

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