कब तब झेलें यह सब प्यारे
हिम्मत हार गयी
गमछा तार-तार
धोती भी आरपार दिखती है
झोपड़ी उजाड़ मरघट सी
किस्मत मार गयी
सूरज से संग
रोज कारिन्दा जमींदार का
आकर गाली दे जाता है
साहूकार के कर्ज और
पंसारी का रोज तगादा आता है
सुख को मार गया है लकवा
चीलों सा दुख मंडराता है
काठ हुआ तन
पत्थर सा मन
महंगाई कुल्हाडी सी
पावों पर कर वार गयी।
कब तक झेलें यह सब प्यारे
हिम्मत हार गयी।
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
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