रविवार, 17 अगस्त 2008

खामोशी

मेरे मीत,
रात का गहन अंधकार,
रच बस गया है मेरे भीतर,
चांद, तारे, सूर्य,रोशनी, प्रकाश ,
अपने लिए,
महज निरर्थक शब्द बनकर रह गये हैं.

जाने कितने युग से,
ठहरी है मेरी जिंदगी,
एक ऐसे अज्ञात, गैर जरूरी कोने में,
फिट हो गया हूं
जहां से कोई गुजरता भी नहीं,
ऐसा विराट अंध सागर है,इर्द-गिर्द
कुछ देख भी नहीं पाता
हां चट्टानों से टकराती लहरों की धुन
और बहुत कुछ सिर्फ सुन सकता हूं.

और अपने कानों से बहुत कुछ,
आंक सकता हूं,
आंशकाये जता सकता हूँ
सपने बुन सकता हूं
पर सब कुछ जानने के बाद भी
खामोशी मेरी विवशता है,
मैं कैद क्यो हों
मेरा गुनाह क्या है?

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