बसाए आंख में
सपनो के इंद्रधनु की
हत्या रोज करता हूं
कैसे जिंदा हो जाता प्रात
रात तो रोज मरता हूं
गुजरते भयावह
बियावान जंगल से
निशीथ में भी
भयभीत न होता.
मगर गलियों व सड़कों से
गुजरते रोज डरता हूं.
कौन जाने किस बरस
किस मास किस दिन
क्या हो जाये.
इसलिए अब सफर पर
जब भी निकलता हूं
हर कदम हर मोड़ पर
संभल कर रोज चलता हूं.
रविवार, 17 अगस्त 2008
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