रविवार, 17 अगस्त 2008

उजाले की खोज

उजाले की खोज मे
अन्धकार के पहाड़ के नीचे दब गया हूं
नव ज्योति की तलाश में
जहां सिर्फ अंधेरा सिर्फ अंधेरा

नहीं दिखता पर सुनता हूं
दम तोड़ते नन्हे बच्चों की आवाजें
बमबारी, हत्यायें, सिसकिया

अरोपों प्रत्यारोपों का दौर
प्रगति के आंकड़े
और कभी किसी का गाढ़ा खून
लिपट जाता है पैरों में

मेरे खिलाफ के महाभियोग भी गूंजता है
मैने उजाला देखा है
पर सच-सच कहता हूं,
नही उजाला मैने देखा
इस वियावान में,गहन अंध में
भला उजाला किसे दिखेगा

अब अंध तभी मिट सकता है जब
सब आखें रक्तिम सूरज हो जाये

1 टिप्पणी:

Anwar Qureshi ने कहा…

अब अंध तभी मिट सकता है जब
सब आखें रक्तिम सूरज हो जाये
...बहुत बढ़िया ...अच्छा लगा ...धन्यवाद ...