रविवार, 17 अगस्त 2008

मैं तुम्हें आवाज देता हूं

जब कभी मुझसे टकराता आकर
कोई झोंका सर्द पवन का
मैं तुम्हें आवाज देता हूं।

घूमता हूं,बेमकसद
पेड़ो की झुरमुटों/बागों की सनसनाहट बीच,
भागता हूं दूर-दूर,
शोर और भीड़ भरे चौराहों से/
जब कोई मुर्गा देता है बांक अलस्सुबह,
और कलरव पक्षियों का गूंजता है,
मैं तुम्हें आवाज देता हूं/

जानता हूं नही सुनता,
मेरी भी आवाज कोई ,
लाखों चीखों-कराहटों के बीच
पर मुझे संतोष होता है,
एक बार भी जब तुमको पुकार लेता हूं।


लुहार के घन प्रहार सी,
दीवार घड़ी की टिक -टिक
झन्ना देती है मेरे दिमाग को
जब कोई लावारिस बबूल का काटा,
भेदता है मेरे तलुए को ,
दर्द से तिलमिला मैं फिर
तुम्हें आवाज देता हं।

कोई टिप्पणी नहीं: