रविवार, 17 अगस्त 2008

गजल

कौन कांटे बो रहा है
इस शहर में,
कौन आकर रो रहा है
इस शहर में

गांव से झुंड आते
हर घड़ी पर,
क्या कोई जलसा बड़ा है
इस शहर में/

अमृत सा बंट रहा है
विष यहां पर
जहर की लाइन लगी क्यों
इस शहर में

एक दिन वदीं पहन आया कोई पिस्तौलवाला
देखते सब रोज तबसे
नयी अर्थी इस शहर में/

अनाज के पहाड़ पर भूखों के ढेर
लेटे यहां आकाश तले,
आदमी हैवान होता जा रहा है
इस शहर में/

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