गुरुवार, 14 अगस्त 2008

अंध महासागर

अट्टहास करता एक दिन,
जरूर अपना मौन तोड़ेगा आकाश,
आंधिया बुझा देंगी,
नश्लवादी दीप,
बाहर झांकेगे,
सागर की अतल गहराइयों में छिपे मोती,

फिर से मांसल होगी,
हरखू की दीमक लगी हड्डियां,
और धनियां की आंखों में,
फिर से हरी-भरी
खुशहाली नाचेंगी,

फिर से अठखेलियां खेलेगी सूखी नदी,
लहरायेंगे ताल -पोखरे,
पर भरीसा क्यों नहीं होता,
मेरे बिछड़े हुए मीत,
तुम कभी लौटकर आओगे?

फिर भी जानें क्यों,
टकटकी लगाये मैं
खोजता रहता हूं हर छाया-प्रच्छाया में,
अपने साथ तुम्हारी,खोई हुई आकृति

बेभरोसे का यह भरोसा,
मेरी रोशनी खो रहा है,
और डुबो रहा है,
अंधमहासागर में।

1 टिप्पणी:

Amit K Sagar ने कहा…

सुंदर. शुभकामनायें. आगे भी लिखते रहिये.