गुरुवार, 14 अगस्त 2008

विश्राम चाहता हूं

विश्राम चाहता हूं

पहचान नही पाता
पास के चेहरों को
चटख चांदनी
और सूरज की रोशनी में भी
लगातार चौकन्ना रहने से
कानो की शक्ति क्षीण हो गयी है
बहरापन महसूसता हूं

आंखे तीक्ष्ण प्रकाश में
लगातार देखते-देखते
ज्योति गंवा बैंठी हैं
और हाथ लगातार
सिर का बोझ थामे
शक्तिहीन हो गए हैं

पांव चलते चलते
लहूलुहान
थक गए हैं अब
कोई छेडो़ न मुझे
विश्राम चाहता हूं
मुझे छोड़ दो
अकेले
अपने हाल पर।

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