मंगलवार, 19 अगस्त 2008

हत्यारा सूरज

उजला हत्यारा सूरज
सांझ को ढ़ेरों लहू बिखेर
झाड़ झंखाड़ो में खुद का तन छिपाता,
एकाएक खो जाता है
समंदर की अतल गहराइयों में

छटपटाहट और चीखें
दबाने के लिए झींगुर छेड़ देते हैं अपना राग
पक्षी, मुंह मांगी मुरादें पा·र
मौन साध जाते हैं,

रात-रातों-रात
सारा खून साफ·र
शिनाख्त मिटा
सुबह फिर पेश करती है
अपने बहुत 'पाक -साफ सूरज को

फिर भी कानो-कान
फैल ही जाती है सच्चाई
जिसे विपक्षी अफवाहें और
उजाला धूमिल करने का
कुचक्र बताता
उलटे आग बबूला हो जाता है सूरज


पक्षी मधुर आवाज में
राग सुनाने लगते है,
नारे लगाते हैं और निरीह जानवर
और जयकारा से गूँज जाता है सारा जंगल

लेकिन फिर-
चकाचौध उजाला बिखेर देने के बाद
अनुभवी चोरों की तरह
शहर की बिजली काट
लंबा गोल माल कर
फिर से गोल हो जाता है सूरज

और रात फिर अपने सूरज को
अपने आंचल में छिपा
काली शाल फेंकती है
धरती पर
ताकि सब सो जाये

मगर इधर
जब से चौकन्ना रहने लगा है
आदमी
निगहबानी करने लगी है दिशाऐं
सूरज डरने लगा है
बेनकाब होने से

और रात भी
आशंकित रहने लगी है
अपने फरेब की
नाकायमाबी पर
आखिर कब तक अपनी काली शाल के सहारे
वह भी बचा पाऐगी
अपने सूरज को
कब तक ?

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