बासी हो गयी है
कल रात की खबर
हमारी आखों को चाहिए
रोज खून से तर-बतर अखबार
जाने क्यों इतनी बदल गयी है हमारी मानसि·ता
सहानुभूति महज शब्दकोष में दर्ज
अर्थहीन शब्द
सब कुछ घटते देख
चुपचाप हम गुजर जाते हैं
मौन का कुहासा छा गया है मुखरता पर
हम लडऩा नहीं चाहते
सिर्र्फ तमाम गंभीर हादशों से भरे अखबार
देखना चाहते हैं
कहाँ आदमी बूटों से रौंदा जा रहा है
कहाँ बुझ गयी जवानो की जीवन ज्योति
भूख-शीतलहरी में
कितनो ने दम तोड़ा
हमें चाहिए
भोर में चाय की चुस्किओं के साथ
ऐसे ही अखबार
क्योंकि कल की सारी खबरें बासी हो गयी हैं।
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
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