जाने क्यों,जाने कैसे
यंत्र से मानव बनने लगा हूं
कोई तिलस्मी पहाड़ी
अपनी ओर खींच रही है मुझे
मैं जाने लगा हूं उस ओर
यंत्रवत मानव की तरह
मुझे फूल भी सुहाने लगे हैं अब
मेरे भीतर भी खिलने लगे हैं कुछ फूल
महकने लगी है खुशबू
मेरे बंजर मन में
फूटने लगी हैं कई कोपलें
धरती भी भाने लगी है मुझे
झरने भी फूटने लगे हैं
सोच-सोच कर परेशान हूं मैं
कौन तिलस्मी पहाड़ी
बर्र्फ की मानिंद पिछला रही है
लोहे के इस पहाड़ को
बर्र्फ के ताप में
लोहे का पिघलना
कौन सी दुनिया है यह
वैसे जैसे मरूभूमि मे हरीतिमा और बगीची लगाना
रेगिस्तान होते बंजर में
हरी कोपलें
एक नयी दुनिया नहीं तो और क्या?
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
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