बुधवार, 13 अगस्त 2008

नए साल के नाम .....


कविता-अरविन्द कुमार सिंह

सभी पूर्ववत
नहीं नया कुछ लगता मुझको
चार दिशाऐं चौकोने पर
पहले जैसी डटी हुई हैं
सारे पादप वहीं खड़े हैं
सारे चौराहे वैसे हैं.

मान रहा कुछ ठंड बढ़ा है
खेतों-खलिहानो-गांवों में
कल से कुछ गहरा कोहरा है
पर सूरज की िकरणों में
न गरमाहट
नहीं नया पन
पक्षी के कलरव में भी
कोई नवगीत नहीं सुनता हूं
सूखे डालें वही पेड़ की
नहीं नया कुछ दिखता मुझको
फिर कैसा अभिनंदन का सुर
गूंज रहा है
नया साल क्या?

2

जिस क्षण सोता विश्व समूचा होता है
कैलेंडर फडफ़ड़ा निकलती
रोज नयी तारीख
बनता रोज नया दिन
ऐसा ही कुछ बदला लगता
करनी आज भी वही कल सम
मुझे पेट की चिंता
व्यवस्था अपने तन की
नियति हो गयी
रोज ·माना खाना जो.

गलियां कूचे सड़क आदमी
मीनारें मेंहराबें दूकानें
नगर समूचा कल जैसा ही
नहीं नया कुछ बदला लगता
हां ,गलियों में फिकरे करते
बच्चे कुछ उम्रदार हो
नए साल की यही विरासत
एक साल की उम्र बढ़ गयी
नए साल की यही विरासत
वही करेली लिपट रही थी
नीम पेड़ के चारों ओर
आज चढ़ गयी
ऊंची डालों पर
नए साल की खबरें पाकर
एकाकी जीवन को ढ़ोते उस बूढ़े अनाथ की
आंखे कुछ धस गयी हैं
और झुर्रियां
गालों की गहरायी है...

3
इश्तहार ये खुशहाली के
प्रगति के या स्वर्णकाल के
शासक प्रशस्ति के
मंदिर-मस्जिद के झगड़ो के
मंडल और कमंडल के
चौराहों पर हर कोनों पर
चिपक रहे जो
नया नहीं है
और पर्चियां कुछ आमंत्रण
कुछ हाथों में वितरित होते
नया नहीं है
भीतर िकतनी ज्वाला ,िकतनी हलचल है
उन्हें पता है
जो मन की सारी खुशियां समेट कर
मुसकाते दिखते बांटते मुबारकबाद.

4
नया साल ये नव दिन तो है महलों का
झुग्गी झोपडिय़ां गांवो में
कुछ भी नया नहीं है

बिजली खंभे दिखते पग-पग
पर अभी अंधेरा गांवो में
नहरों के हैं जाल बिछे पर
सिसके धरती चटकी गांवो में
नही नयापन
धनिया होरी की
वही पुरानी तस्वीर आज भी गांवों में
वही सांझ के ढ़ले आज भी
सन्नाटा है गांवो में
जूते के उद्योग दर्ज हैं
पर फटी बिवाई गांवो में
नहीं नयापन,वही सेठ जागीरदार ·ी
आवाज कड़कती गांवो में
ट्र्ैक्टर भी पर जर्जर सड़के
टूटी लढिया मरियल बैल का बहुमत
अब भी गांवो में

वही उमंगे,वही पुरानी
मरणासन्न वही हैं
वही खाट टूटी सी
फटी रजाई चिथड़ा चद्दर
तार-तार मन,खंड-खंड तन
सारी आशाऐं हैं बंजर
बूढ़ी आंखो में कल के ही
मृत सपने हैं.

5

रद्दीवाले,सब्जीवाले,पालिशवाले,चरवाहे या
छोटे हाथों की
गलियों मे गूँज रही बच्चों की आवाजें
नयी नहीं हैं
सुबह आयी थमा गयी
जूठी प्लेटें और गिलास
यह भी नया नहीं है
ट्रेन गुजरती,गांव काँपता ,नया नही है
दंगा होता,नेता िचतित नया नही है
दंगा होता नेता शामिल नया नही है
मंदिर मस्जिद झगड़ रहे हैं,नया नही है.
गुडग़ांव में गोली बर्षा नया नही है.

आरोपों प्रत्यारोपों में नही नयापन
आघातों-प्रत्याघातों में नहीं नयापन
इन बातों में उन बातों में नही नयापन

6
बिखरे ढ़ेर िकताबों के है
वही बोझ है
कुछ बदला गर दिखता मुझको तो
सिर्फ बदलते वक्तव्य रोज हैं
·लम वही है,सूख गयी कुछ
मेज वही है बिखरे कागज़
हलचल मन में वही पुरानी
पहले जैसी

सब कुछ पहले सा है तो फि र
यह अभिनंदन है किसका
किसका स्वागत,नया साल क्या ?

नया साल क्या,वही पुरानी
खोई सी तारीख
घिसा पिटा सा दिन
सदियो से जो एक चक्र में
रोज घूमता
आता जाता है.

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