रविवार, 17 अगस्त 2008

बंजर धरती में आशा के बीज

गली-गली में खोजा
कली-कली में खोजा,
शायद 'आकृति कहीं
छिपी हो खोहों में
ढूंढ़-ढूंढ़ हार गया
नदी के आर- पार गया
नहीं नही दिखी तुम
ऐसी क्यो हुई गुम?

कंटकों से उलझती हुई
जिंदगी स्क्ताती गयी
आंगन- पिछवाड़े सब
डंसते रहे नाग से
आज भी भोर जगा
सूरज की खोज में
दीप्ति बुझी- क्षीण मिली
ढूंढता यूं रोज उसे

आशा के कुछ दीप जले
सूनी फिर हुयी गली
रोज-रोज यही दृश्य
जिंदगी है छली-छली
खुल गयी नाव
टकराती लहरें

धूप और छांव
धुंध भरा वातावरण
नजर नहीं आता गांव
शाम है-रात होगी
फिर सुनहली प्रात: होगी
रात भर जागे बटोही
सुबह कैसे जगेगें
दूर जब करना सफर तय /भला कैसे तय करेंगे


शीत खाई मुरझाई पीतवर्ण सी
जीवन वाटिका
बरसात हुये बरसों बीते
कांतिहीन पत्ते
बिखर गये हैं धरा पर

कैसे बटोरें हम
आशा के पीत पर्ण
और दे लगा आग
डर है,बिखरे न हवा में चिंगारी
जल जाए बची-खुची फुनगियां भी
बिलख उठे बचा-खुचा बाग।

कई उतार चढ़ाव के बीच
आखिर तय ही कर लिया है
लहरों को चीरूंगा
खोजूंगा ठांव
आज नहीं तो कल
मिलेगी ही धरती

बोएगें आशा के बीज
ऊसर में,बंजर में
लहराएगें हरियाली
बरसों से पर्ती
पानी बिन तड़पती जो
देखना लहराएगा कल यहीं
हरा -भरा खेत

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