मंगलवार, 19 अगस्त 2008

मेरा संकल्प

मेरे दोस्त
पथरीली राहों पर अविराम
बढ़ते रहने का मेरा सं·ल्प
लहू-लुहान होते पांवो से
नहीं रूकेगा.

मैं देखना चाहता हूं
समग्र परिवेश,
जहां फैल रहा है
दहशत का धुंआ.
आदमी जहां घुंट रहा है
जहरीली गैसों से

गोबर से गेंहू निकालता है जहां
भूखा आदमी
भूखे कुत्ते
बच्चों के हाथों से
निवाला छीन भागते हैं
बाज,सोते मजूर की
पसलियां निहारता है आधी रात

कोयल की कूक प्यारी लगती है जहां
और अपशकुन होता है
कौवे का बोलना

तमाम अछूती राहों से
होता हुआ
मैं गुजरना चाहता हूं
खुली आंखों से पढऩा चाहता हूं
समग्र परिवेश
तमाम अनखुले पेज
मैं खुद खोलना चाहता हूं

बहुत दूर तक
निकल जाना चाहता है मेरा संकल्प
वहां त·
जहां धरती और आकाश दोनो मिलते हैं
और बूढ़ी दादी का स्वर्ग
जहां से शुरू होता है.

3 टिप्‍पणियां:

रज़िया "राज़" ने कहा…

मेरे दोस्त
पथरीली राहों पर अविराम
बढ़ते रहने का मेरा सं·ल्प
लहू-लुहान होते पांवो से
नहीं रूकेगा.

मेरा संकल्प की यह कविता एक नया उत्साह देती है।बधाई स्वीकारें।

ARVIND KUMAR SINGH ने कहा…

dhanyabad rajia ji

आवारापन.. ने कहा…

चाचा जी प्रणाम,
आपकी कवितायें झकझोरने वाली हैं ,, आप से अनुरोध है यह सिलसिला फिर से शुरू करें .






आशीष मिश्र.