गुरुवार, 14 अगस्त 2008

जीवन दर्शन

सांझ के धुधलके में
जब कहीं खो जाते हैं तुम्हारे हाथ
विलुप्त हो जाती है तुम्हारी काया
तो भी मेरे कानो को
भेदती रहती है
दिन भर का तुम्हारा घन प्रहार

तुम फरियाद नही करते
किसी से रोते नहीं हो
तुम खुश भी नहीं
तुम्हारे आसपास फैला है
दुख का ऊंचा पहाड़
तो भी तुम्हारे चेहरे को बदल नहीं पाता है दुख
तुम तनाव नहीं पालते
तुम्हारी झोपडिय़ो का आकार भी नहीं बढ़ता
परिवार बढऩे के साथ
तुम्हारी जेब भी नहीं बढ़ती
काम कम बोझ बढऩे के साथ

बया,तुम्हारे नन्हे घरौंदे में ही
अपना भी घरौंदा बना लेती है
तुम उजाड़ते भी नहीं हो
तुम्हे पता है किसने भेजी लपटें
किसने उजाड़ी झोपड़ी
पर तुम इसे नियति का फेर मानते हो
तुम पानी लाने नहीं
बया के बच्चो को बचाने दौड़ते हो

भूख
तुम्हारे चेहरो पर लकीर नहीं बना पाती
शीतलहरी भी नहीं कंपा पाती
तुम्हारी नंगी काया
कोई ज्योतिषी
और मंदिर-मस्जिद
बदल नहीं पाते
तुम्हारे हाथ की लकीरों को
मगर तुमको गिला नहीं.

थोड़ा मंत्र मुझे भी दे दो
और बता दो
धैर्य का यह तुम्हारा जीवन दर्शन
क्या है
कैसे जिंदा रहते हो तुम ?

कोई टिप्पणी नहीं: